वाराणसी के बहुचर्चित एवं विवादित ज्ञानवापी परिसर में मिले शिवलिंग के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायधीश अरविंद कुमार मिश्र की एकल पीठ ने महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए इसके ऊपरी हिस्से का वैज्ञानिक परीक्षण (साइंटिफिक सर्वे) किए जाने का आदेश जारी किया है। साथ ही यह भी कहा है कि सर्वे के लिए 10 ग्राम से ज्यादा हिस्सा उसमें से ना लिया जाए।भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, एएसआई ) को ज्ञानवापी परिसर में मिले कथित शिवलिंग का वैज्ञानिक परीक्षण करना होगा। न्यायालय ने साफ आदेश दिया है कि एएसआई को कथित शिवलिंग को नुकसान पहुंचाए बिना वैज्ञानिक परीक्षण करना होगा। वैज्ञानिक परीक्षण के जरिए यह पता लगाना होगा कि कथित शिवलिंग कितना पुराना है।
उल्लेखनीय है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने वाराणसी के जिला जज के फैसले को परिवर्तित कर दिया है। न्यायधीश अरविंद कुमार मिश्र की एकल बेंच में इस मामले की सुनवाई हुई है। ज्ञानवापी में मिले कथित शिवलिंग का साइंटिफिक सर्वे कार्बन डेटिंग के जरिए कराए जाने की मांग को लेकर दाखिल याचिका पर हाईकोर्ट का फैसला आया है। इस मामले में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने कल ही सील बंद लिफाफे में अपनी रिपोर्ट पेश की थी। हिंदू पक्ष की महिलाओं की तरफ से दाखिल की गई याचिका में वाराणसी के जिला जज के आदेश को चुनौती दी गई थी। पिछले साल मई महीने में कोर्ट कमीशन की कार्यवाही के दौरान मस्जिद के वजूखाने से कथित शिवलिंग बरामद हुआ था।
क्या होती है कार्बन डेटिंग?
कार्बन डेटिंग उस विधि का नाम है जिसका इस्तेमाल कर के किसी भी वस्तु की आयु का पता लगाया जा सकता है। इस विधि के माध्यम से लकड़ी, बीजाणु, चमड़ी, बाल, कंकाल आदि की आयु पता की जा सकती है। यानी की ऐसी हर वो चीज जिसमें कार्बनिक अवशेष होते हैं, उनकी करीब-करीब आयु इस विधि के माध्यम से पता की जा सकती है। इसी कारण वादी पक्ष की चार महिलाओं ने ज्ञानवापी परिसर में सर्वे में मिली शिवलिंगनुमा आकृति की कार्बन डेटिंग या किसी अन्य आधुनिक विधि से जांच की मांग की है।
क्या होती है कार्बन डेटिंग की विधि?
पृथ्वी के वायुमंडल में कार्बन के तीन आइसोटोप पाए जाते हैं। ये कार्बन- 12, कार्बन- 13 और कार्बन- 14 के रूप में जाने जाते हैं। कार्बन डेटिंग की विधि में कार्बन 12 और कार्बन 14 के बीच का अनुपात निकाला जाता है। जब किसी जीव की मृत्यु होती है तब ये वातावरण से कार्बन का आदान प्रदान बंद कर देते हैं। इस कारण उनके कार्बन- 12 से कार्बन- 14 के अनुपात में अंतर आने लगता है।यानी कि कार्बन- 14 का क्षरण होने लगता है। इसी अंतर का अंदाजा लगाकर किसी भी अवशेष की आयु का अनुमान लगाया जाता है।
क्या पत्थर पर भी कारगर है कार्बन डेटिंग?
आम तौर पर कार्बन डेटिंग की मदद से केवल 50 हजार साल पुराने अवशेष का ही पता लगाया जा सकता है। पत्थर और चट्टानों की आयु इससे ज्यादा भी हो सकती है। हालांकि, कई अप्रत्यक्ष विधियां भी हैं जिनसे पत्थर और चट्टानों की आयु का पता लगाया जा सकता है। कार्बन डेटिंग के लिए चट्टान पर मुख्यत: कार्बन- 14 का होना जरूरी है। अगर ये चट्टान पर न भी मिले तो इस पर मौजूद रेडियोएक्टिव आइसोटोप के आधार पर इसकी आयु का पता लगाया जा सकता है।
कब हुई थी कार्बन डेटिंग की खोज
कार्बन डेटिंग के विधि की खोज 1949 में हुई थी। अमेरिका के शिकागो यूनिवर्सिटी के विलियर्ड फ्रैंक लिबी और उनके साथियों ने इसका अविष्कार किया था। उनकी इस उपलब्धि के लिए उन्हें 1960 में रसायन का नोबल पुरस्कार दिया गया था। कार्बन डेटिंग की मदद से पहली बार लकड़ी की उम्र पता की गई थी।
अब जान लीजिए विवाद और कार्बन डेटिंग के इस्तेमाल की वजह
ज्ञानवापी विवाद को लेकर हिंदू पक्ष का दावा है कि इसके नीचे 100 फीट ऊंचा आदि विश्वेश्वर का स्वयंभू ज्योतिर्लिंग है। काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करीब 2050 साल पहले महाराजा विक्रमादित्य ने करवाया था, लेकिन मुगल सम्राट औरंगजेब ने साल 1664 में मंदिर को तुड़वा दिया। दावे में कहा गया है कि मस्जिद का निर्माण मंदिर को तोड़कर उसकी भूमि पर किया गया है जो कि अब ज्ञानवापी मस्जिद के रूप में जाना जाता है। कार्बन डेटिंग में अगर शिवलिंगनुमा आकृति उस समय के आसपास का पाई जाती है तो यह बड़ी कामयाबी होगी।