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- कर्ण जानते थे कि उनका मित्र दुर्योधन सही राह पर नहीं हैं और उसका साथ युद्ध में देकर कर्ण उचित नहीं कर रहे है।
महाभारत की कथा के अनुसार जब महाभारत का युद्ध होने वाला था । तब भगवान श्री कृष्ण धर्म की रक्षा के लिए युद्ध में पांडवों का साथ दे रहे थे । लेकिन कौरवों की गलती और अपराधों को जानते हुए भी कर्ण दुर्योधन से मित्रता निभाने के लिए कौरवों का साथ दे रहे थे । कर्ण जानते थे कि उनका मित्र दुर्योधन सही राह पर नहीं हैं और उसका साथ युद्ध में देकर कर्ण उचित नहीं कर रहे है। लेकिन इन सभी बातों से ऊपर उन्होने दुर्योधन की मित्रता को रखा क्योंकि जब कर्ण से उनके वंश कुल और साम्राज्य के बारे में पूछा जा रहा था और उनका अपमान किया जा रहा था तो दुर्योधन ने ही उनको मान सम्मान दिया और अंगदेश का राजा घोषित किया तथा कर्ण के पूछने पर की इसके बदले तुम्हे मुझसे क्या चाहिए दुर्योधन ने कर्ण से मित्रता ही चाही ।जिसके बाद कर्ण दुर्योधन के प्रिय मित्र बने इसलिए इस सत्य को जानते हुए भी की वह अधर्म की ओर खड़े है उन्होने मित्र दुर्योधन का साथ दिया। कर्ण की शक्ति से भगवान कृष्ण और इन्द्र देव भलि-भांति अवगत थे.कर्ण सूर्य पूत्र थे वे कवच और कुंडल के साथ पैदा हुए थे कृष्ण जानते थे कि कर्ण के पास जब तक कवच और कुंडल है, तब तक कर्ण को पराजित करना नामुमकिन है और इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने इन्द्र देव के साथ मिलकर एक योजना बनाई कृष्ण ने इंद्रदेव को ब्राह्मण के वेश में कर्ण के पास जा कर दान में उनसे उनका कवच और कुंडल मांगने के लिए कहा. ये बात सभी जानते थे कि कर्ण जैसा महान दानी कोई भी नहीं हैं ।कर्ण जैसा पराक्रमी और दानवीर कोई नहीं हैं यह बात श्री कृष्ण को भी ज्ञात थी की कर्ण प्रतिदिन लोगों को दान किया करते हैं साथ ही दान में मांगी गई किसी भी वस्तु के लिए मना नहीं करते एंव किसी भी व्यक्ति को खाली हाथ अपने द्वार से नहीं लौटने देते थे । योजना के तहत इन्द्रदेव भेष बदलकर कर्ण के पास दान में कर्ण से उनके कवच और कुंडल मांगने पहुंचे गये लेकिन उनके योजना के बारे में सूर्यदेव ने अपने पुत्र कर्ण को पहले ही बता दिया था। पिता के चेताने पर भी द्वार पर भेष बदलकर आए इन्द्रदेव को कर्ण ने अपना कवच और कुंडल दान दे दिया ।कर्ण से कवच और कुंडल मिल जाने के बाद इंद्र वहां से तुरंत अपने रथ पर सवार होकर भागने लगे क्योंकि वे नहीं चानते थे कि उनकी असलियत का पता कर्ण को पहले से है लेकिन जैसे ही वे कुछ दूर चले उनका रथ जमीन में धंस गया. और काशवाणी हुई कि ‘देवराज इन्द्र, तुमने बहुत बड़ा पाप किया है. अपने पुत्र अर्जुन को बचाने के लिए तुमने छल पूर्वक कर्ण के कवच और कुंडल प्राप्त किए हैं, कर्ण की जान को खतरे में डाला. अब यह रथ यहीं धंसा रहेगा और तुम भी यहीं धंस जाओगे’. आकाशवाणी सुनकर इन्द्रदेव माफी मांगते हुए विनती करने लगे कि प्रभु इस श्राप से कैसे बचा जा सकता है. तब फिर आकाशवाणी हुई अब तुम्हें दान दी गई वस्तु के बदले में बराबरी की कोई वस्तु देनी होगी. इंद्रदेव अपनी भूल को स्वीकार करते हुए कर्ण के पास गए. लेकिन इस बार उन्होने ब्राह्मण का वेश धारण नहीं किया तब कर्ण ने उनसे बड़ी विनम्रता से पूछा देवराज आदेश करिए मैं आपकी और क्या सेवा कर सकता हूँ ? यह सुनकर इंद्रदेव खुद को लज्जित महसूस करने लगे और बोले कि हे दानवीर कर्ण अब मै लेने नहीं कुछ देने आया हूं. कवच-कुंडल को छोड़कर जो इच्छा हो मांग लीजिए. इस पर कर्ण ने कहा हे देवराज मुझे कुछ नहीं चाहिए. कर्ण सिर्फ दान देना जानता है, लेना नहीं. लेकिन आखिरकार इंद्र को कर्ण के आगे लाचार होना पड़ा और इंद्र ने कहा कि हे कर्ण तुम वीर पराक्रमी होने के साथ ही सबसे बड़े दानवीर हो लेकिन मैं अब बिना कुछ दिए तम्हे वापस नहीं जा सकता इन्द्र के आग्रह करने पर कर्ण इंद्र द्वारी दी जा रही शक्ति लेने को तैयार हुए जिसके बाद इंद्र ने वज्ररूपी शक्ति कर्ण को प्रदान की और कहा कि कर्ण तुम इसको जिसके ऊपर भी चलाओगे वो बच नहीं पाएगा. फिर वो चाहे साक्षातकाल ही क्यो न हो लेकिन इसका प्रयोग सिर्फ एक बार ही कर पाओगे. इतना कहकर इंद्र वहां से चले गए. (रिंकी कुमारी )