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खत्म नहीं हो देशद्रोह का कानून, सजा 3 साल से बढ़ाकर करें 7 साल

  • सजा को बढ़ाकर आजीवन कारावास तक करने का सुझाव दिया है।
  • भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए में परिभाषित राजद्रोह कानून को बनाए रखा जाना चाहिए।
  • सजा के प्रावधान को कम-से-कम 7 साल से लेकर आजीवन कारावास तक बढ़ाने की सिफारिश की है।
    नई िदल्ली,
    देशद्रोह कानून को लेकर जारी बहस के बीच लॉ कमीशन ने अपनी रिपोर्ट केंद्र को सौंप दी। कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में 132 साल पुराने इस कानून को कुछ संशोधन के साथ बरकरार रखने की सिफारिश की है। इसके साथ ही, इसकी सजा को बढ़ाकर आजीवन कारावास तक करने का सुझाव दिया है। कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रितुराज अवस्थी की अध्यक्षता में 22वाँ विधि आयोग का गठन किया गया था। इस आयोग ने अपनी सिफारिश में कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए में परिभाषित राजद्रोह कानून को बनाए रखा जाना चाहिए। आयोग ने इस कानून के तहत सजा के प्रावधान को कम-से-कम 7 साल से लेकर आजीवन कारावास तक बढ़ाने की सिफारिश की है। विधि आयोग की इस 279वें रिपोर्ट में कहा गया है, “विधि आयोग की 42वीं रिपोर्ट में धारा 124ए के लिए सजा को बहुत ‘विषम’ बनाया गया है। यह या तो आजीवन कारावास या केवल तीन साल तक की कैद हो सकती है। इसके बीच में कुछ भी नहीं। न्यूनतम सजा जुर्माना हो सकती है। एक तुलना आईपीसी के अध्याय VI में दिए गए अपराधों के लिए दिए गए वाक्यों से पता चलता है कि धारा 124ए के लिए निर्धारित दंड में स्पष्ट असमानता है। इसलिए, यह सुझाव दिया जाता है कि प्रावधान की सजा को अनुरूप लाने के लिए संशोधित किया जाए।” अपनी रिपोर्ट में विधि आयोग ने कहा, “धारा 124ए को भारतीय दंड संहिता में बनाए रखने की आवश्यकता है। हालाँकि कुछ संशोधन के, जैसा कि सुझाव दिया गया है, साथ इसमें केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य के निर्णय को शामिल किया जा सकता है, ताकि प्रावधान के उपयोग के संबंध में और अधिक स्पष्टता लाई जा सके।” कमीशन ने यह भी कहा कि राजद्रोह केस औपनिवेशिक कानून है, यह कहकर इस पर सवाल उठाया जाएगा तो पूरा भारतीय दंड संहिता ही सवालों के घेरे में आ जाएगा। केवल इस तथ्य के साथ कि एक विशेष कानूनी प्रावधान अपने मूल में औपनिवेशिक है और कुछ देशों ने इसे खत्म कर दिया है, इसे निरस्त करने को मान्य नहीं करता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि आईपीसी की धारा 124ए जैसे प्रावधान की अनुपस्थिति में सरकार के खिलाफ हिंसा भड़काने वाली किसी भी अभिव्यक्ति पर निश्चित रूप से विशेष कानूनों और आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत मुकदमा चलाया जाएगा। इसमें अभियुक्तों से निपटने के लिए कहीं अधिक कड़े प्रावधान हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि इसे निरस्त करने से देश की अखंड़ता और सुरक्षा पर प्रभाव पड़ सकता है। दरअसल, फॉरवर्ड कम्यनिस्ट पार्टी के नेता केदारनाथ सिंह ने 26 मई 1953 में बिहार के मुंगेर जिले के बरौनी गाँव में भाषण देते हुए CID के अधिकारियों के लिए ‘कुत्ता’ और कॉन्ग्रेस के नेताओं के लिए ‘गुंडा’ शब्द का प्रयोग किया था। उन्होंने कहा था कि कॉन्ग्रेस देश के लोगों के साथ वैसा ही व्यवहार कर रही है, जैसा कि अंग्रेज करते थे। इसके बाद उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला था और उन्हें एक साल का सश्रम कारावास हुई थी। बताते चलें कि भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों वाली पीठ ने 11 मई 2022 को इसकी वैधता पर निर्णय लेने के बजाय प्रावधान को ठंडे बस्ते में डाल दिया था। इसके बाद केंद्र सरकार ने न्यायालय को बताया था कि वह इसकी जाँच करेगी कि धारा 124A को बनाए रखने की आवश्यकता है या नहीं।

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