उत्तराखंड सरकार ने विधानसभा में समान नागरिक संहिता विधेयक पारित करके इतिहास रचने की दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं। उत्तराखंड समान नागरिक संहिता को लागू करनेवाला पहला राज्य होगा। असम और गुजरात भी उत्तराखंड की भाँति जल्द ही समान नागरिक संहिता लागू कर सकते हैं। उत्तराखंड के इस निर्णय का अन्य सभी राज्यों को भी अनुसरण करना चाहिए। समान नागरिक संहिता को लागू करना समय की माँग भी है और यह संविधान एवं संविधान निर्माताओं की भावनाओं का पालन भी है। संविधान निर्माताओं को उसी समय सत्ता का सहयोग मिला होता, तो प्रारंभ से ही देश में अलग-अलग संप्रदायों के लिए अलग-अलग कानून की व्यवस्था नहीं होगी। कानून की दृष्टि में सब समान होते। किंतु, कतिपय कारणों एवं नेतृत्व की तुष्टीकरण की नीति के चलते संविधान सभा उस समय इस दिशा में ठोस निर्णय नहीं कर सकी। हालांकि, उसने संविधान में नीति-निर्देशक तत्वों के रूप में समान नागरिक संहिता का उल्लेख किया है। इसका अर्थ है कि संविधान सभा चाहती थी कि भविष्य में समान नागरिक संहिता लागू हो। निस्संदेह, यह निर्णय वहीं सरकार ले सकती है जो सब पंथों को लेकर समान दृष्टि रखती हो, जिसकी सोच संकीर्ण तुष्टीकरण की राजनीति से ऊपर हो, जो सरकार साहसी हो। उम्मीद है कि अगले कार्यकाल में केंद्र सरकार संपूर्ण देश में समान नागरिक संहिता लागू करे। क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद में कहा है कि उनका तीसरा कार्यकाल बड़े निर्णयों वाला रहेगा। समान नागरिक संहिता का निर्णय ऐसा ही बड़ा निर्णय है, जिसको लागू करने की माँग लंबे समय से की जा रही है। यह तो मानना ही होगा कि देश में यदि समान नागरिक संहिता को कोई लागू कर सकता है, तो वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा सरकार ही है। भाजपा नीति-निर्माण बनाने में सांप्रदायिक दृष्टिकोण को एक ओर रख देती है। सही अर्थों में समान नागरिक संहिता एक सेकुलर और संविधान सम्मत कार्य है। परंतु मजेदार बात यह है कि जो अपने माथे पर सेकुलरिज्म का ठप्पा लगाकर चलते हैं, जो गाहे-बगाहे संविधान की रक्षा की दुहाई देते हैं, उसे ही सबसे अधिक कष्ट समान नागरिक सहिता से है। क्या सभी नागरिकों को समान अधिकार देने का निर्णय सांप्रदायिक है? सांप्रदायिक प्रावधान तो वास्तव में यह है कि हम संप्रदाय के आधार पर कानून की व्यवस्था दें। कानून की नजर में तो सब समान होने चाहिए। समान नागरिक संहिता महिलाओं के अधिकार एवं सम्मान को भी सुरक्षा प्रदान करती है। लेकिन हैरानी है कि अपने आपको महिला हितों के लिए आवाज उठानेवाले संगठन एवं सामाजिक कार्यकर्ता भी समान नागरिक संहिता को विरोध करने के लिए आगे आ जाते हैं। इससे साफ होता है कि वास्तव में इस प्रकार के लोग सेकुलरिज्म, संविधान और महिला एवं बाल अधिकारों के नाम पर अपनी दुकाने चला रहे होते हैं। विदेशी संस्थाओं से फंड लेते हैं और उनके इशारे पर नाचते हैं। जब वास्तव में महिला अधिकारों की बात आती है, तो उसका स्वागत करने की बजाय या तो चुप्पी साध लेते हैं या फिर किसी के इशारे पर उसका विरोध करते हैं। भाजपा की प्रशंसा करनी होगी कि वह एक-एक करके अपने उन सब वायदों को पूरा करती नजर आ रही है, जिनके आधार पर जनता ने उसके प्रति विश्वास व्यक्त किया और उसे जनादेश दिया। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि न्यायालय की ओर से भी कई अवसरों पर समान नागरिक संहिता की आवश्यकता बताई जा चुकी है। उत्तराखंड सरकार की सराहना करनी चाहिए कि उसने एक आवश्यक कदम उठाने का साहस दिखाया है। नि:संदेह, अन्य राज्य भी समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए आगे आएंगे।
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