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चुनाव से पहले ही ध्वस्त हो गया विपक्षी गठबंधन

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा को तीसरी बार सत्ता में आने से रोकने के लिए विपक्षी राजनीतिक दलों ने बड़ी मुश्किल से आईएनडीआईए नाम का गठबंधन बनाया था। इस गठबंधन ने मोदी विरोधियों के मन में एक आत्मविश्वास पैदा किया कि इसके आधार पर वे जनता का विश्वास जीतने वाले प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती दे पाएंगे लेकिन उनका यह आत्मविश्वास भी इसी गठबंधन के आपसी झगड़ों ने ध्वस्त कर दिया है। नीतीश कुमार और जयंत चौधरी ने तो विपक्षी गठबंधन से बाकायदा नाता तोड़कर भाजपानीत गठबंधन राजग का हाथ थाम लिया। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का पलटना इस अर्थ में निर्णायक कहा जा सकता है कि वही गठबंधन के सूत्रधार की भूमिका निभा रहे थे। उन्हें अपनी ओर खींचकर भाजपा और राजग ने विपक्षी दलों के विशाल गठबंधन से बनते विमर्श को जबर्दस्त झटका दिया। नीतीश कुमार के झटके से उबरने की कोशिशें ढंग से शुरू होतीं, उससे पहले ही पश्चिम उत्तरप्रदेश के जाट बहुल इलाके में दखल रखने वाले रालोद नेता जयंत चौधरी ने भी पाला बदल लिया। वहीं, ममता बनर्जी और आम आदमी पार्टी भी एक के बाद एक झटके कांग्रेस को दे रही हैं। आआपा ने पहले पंजाब में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं दी, अब उसने दिल्ली में भी कांग्रेस को आईना दिखाने का प्रयास किया है। आआपा का यह कहना कि दिल्ली में कांग्रेस को एक सीट भी क्यों मिलनी चाहिए, एक तरह से कांग्रेस की बेइज्जती है। ये क्षेत्रीय दल कांग्रेस को आँखें इसलिए भी दिखा पा रहे हैं क्योंकि कांग्रेस स्वयं भी गठबंधन को लेकर ईमानदार नहीं है। जब गठबंधन को लेकर निर्णायक व्यवस्थाएं तय की जानी चाहिए थी, तब कांग्रेस इन क्षेत्रीय दलों पर अपना प्रभाव जमाने के लिए तथाकथित भारत जोड़ो न्याय यात्रा निकाल रही है। वैसे विपक्षी गठबंधन की गति उसके जन्म के साथ ही तय हो गई थी क्योंकि यह गठबंधन नीतियों पर आधारित न होकर, मोदी के प्रति विरोध पर केंद्रित था। गठबंधन को लेकर अनिश्चितता और असमंजस तभी से दिखने लगे जब 2023 के आखिर में हुए विधानसभा चुनावों के मद्देनजर सीट बंटवारे की बातचीत एकतरफा ढंग से स्थगित कर दी गई। इसके पीछे यह दलील अवश्य रही कि गठबंधन तो लोकसभा चुनावों के लिए प्रस्तावित था, इसलिए विधानसभा चुनाव अपने दम पर लड़ने में कोई बुराई नहीं। लेकिन माना यही गया कि कांग्रेस नेतृत्व विधानसभा चुनावों के बेहतर परिणामों के आधार पर सीट बंटवारे की सौदेबाजी में अपना हाथ ऊपर रखना चाहता था। यह अलग बात है कि परिणाम उसकी उम्मीदों के अनुरूप नहीं आए। लेकिन कांग्रेस के इस रुख ने गठबंधन के कई घटक दलों को यह शिकायत करने का अपेक्षाकृत ठोस आधार दे दिया कि कांग्रेस गठबंधन को लेकर गंभीर नहीं है। कांग्रेस नेतृत्व की ओर से आईएनडीआईए के अब भी बने रहने की बीच-बीच में होने वाली औपचारिक घोषणाओं को छोड़ दें तो ऐसे कोई संकेत नहीं दिख रहे कि सचमुच जमीन पर इसे बनाए रखने की कोई कोशिश हो रही है। ऐसे दौर में जब खुद विपक्ष लोकतंत्र को खतरे में बता रहा है, विपक्षी गठबंधन को लेकर इन दलों का रवैया गंभीर सवाल खड़े करता है। दरअसल, कांग्रेस अपनी रणनीति तय नहीं कर पा रही है। वह किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में है।

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