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मुस्लिम लीग सांप्रदायिक नहीं तो कुछ भी सांप्रदायिक नहीं है

कांग्रेस के मुख्य नेता राहुल गांधी ने अपने अमेरिका प्रवास से एक और चौंकानेवाला एवं विवादास्पद विचार दिया है। उनका कहना है कि “मुस्लिम लीग पूरी तरह से सेक्‍युलर पार्टी है। मुस्लिम लीग के बारे में कुछ भी नॉन-सेक्‍युलर नहीं है”। भारतीय राजनीति की समझ रखनेवाले विद्वान हैरान हैं और कह रहे हैं कि यदि मुस्लिम लीग सांप्रदायिक नहीं है, तब कुछ भी सांप्रदायिक नहीं है। जिस राजनीतिक दल का जन्म ही एक संप्रदाय विशेष के लिए हुआ और उसके नाम में भी संप्रदाय जुड़ा है, इसके बाद भी उसे सेकुलर बताना तुष्टीकरण की हद है। चूँकि राहुल गांधी की पार्टी ने केरल में मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन किया हुआ है, क्या इस कारण से एक सांप्रदायिक पार्टी सेकुलर हो जाएगी? अर्थात जो कांग्रेस के साथ है, वह सेकुलर है, भले ही वे एक संप्रदाय के लिए समर्पित हों। वहीं बाकी सब सांप्रदायिक हैं, भले ही वे ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ की बात करें। प्रश्न पूछनेवाले पर भी राहुल गांधी ने सवाल उठाया है कि प्रश्नकर्ता ने मुस्लिम लीग के बारे में पढ़ा नहीं है। ऐसा लगता है कि राहुल गांधी ने अपनी ही पार्टी और नेताओं का इतिहास नहीं पढ़ा है इसलिए अकसर वे ऐसी बातें कह जाते हैं, जो उनकी पार्टी के मूल विचार को कठघरे में खड़ा कर देती हैं। जैसे पिछले वक्तव्य में उन्होंने मुस्लिम तुष्टीकरण करते हुए 1980 के दशक की अपनी ही सरकारों को दलितों पर अत्याचार के लिए कठघरे में खड़ा कर दिया था। प्रश्नकर्ता से पहले मुस्लिम लीग के बारे में स्वयं राहुल गांधी को पढ़ना चाहिए। उनके नाना एवं भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू इसी मुस्लिम लीग का विरोध किया है, जिसके साथ आज उनकी पार्टी गलबहियां कर रही है। वायनाड में मुस्लिम लीग के भरोसे चुनाव जीते राहुल गांधी को यह स्मरण करना चाहिए कि वे जिस मुस्लिम लीग को सेक्युलर बता रहे हैं, पंडित नेहरू उसके गठन के खिलाफ थे। वह नहीं चाहते थे कि स्वतंत्रता के बाद भारत में मुस्लिम लीग जैसी कोई पार्टी बने। तथाकथित सेकुलर बुद्धिजीवियों का समूह अकसर इंडियन मुस्लिम लीग के बचाव में कहता है कि भारत का बँटवारा करानेवाली मुस्लिम लीग अलग थी और यह मुस्लिम लीग अलग है। तकनीकी तौर पर यह बात सही है लेकिन इंडियन मुस्लिम लीग की स्थापना में वही लोग एवं विचार हैं, जो कभी जिन्ना की मुस्लिम लीग में शामिल रहे। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि इंडियन मुस्लिम लीग का जन्म जिन्ना की मुस्लिम लीग की कोख से हुआ है। स्वतंत्रता से पूर्व दक्षिण भारत में जिन्ना के दो खास चेले थे- बी.पोकर साहिब बहादुर और एम. मोहम्मद इस्माइल। ये दोनों दक्षिण भारत में जिन्ना की मुस्लिम लीग का कामकाज देखते थे। इन दोनों के नेतृत्व में 1945-46 के चुनावों में मद्रास प्रांत (वर्तमान तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और आंध्र) में मुस्लिम लीग को अच्छी सफलता मिली। मुस्लिम लीग के आंदोलनों के तहत मुसलमानों के लिए अलग देश पाकिस्तान की माँग करनेवाले ये दोनों नेता पाकिस्तान गए नहीं। स्वतंत्रता के केवल सात महीने बाद ही 10 मार्च 1948 को दोनों नेताओं ने मुस्लिम लीग के नेताओं की एक बैठक बुलाई। मद्रास के राजाजी हॉल में हुई इस बैठक में मुस्लिम लीग के वे सभी 33 बड़े नेता शामिल हुए जो बँटवारे के बाद पाकिस्तान नहीं गये थे बल्कि हिंदुस्तान में ही रहकर ही एक बार फिर से नफरत के बीज बोने की तैयारी कर रहे थे। आखिरकार 1 सितंबर 1951 को इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग औपचारिक तौर पर अस्तित्व में आई। इस पार्टी ने आते ही अपने सांप्रदायिक रंग दिखाने शुरू कर दिए थे। 27 अगस्त 1947 को संविधान सभा की महत्वपूर्ण बैठक में मुस्लिम लीग के बाकी सदस्यों के साथ-साथ केरल के मुस्लिम लीग के नेता बी.पोकर और एम.मोहम्मद इस्माइल ने पूरी बेशर्मी के साथ एक घनघोर सांप्रदायिक मांग रखी। इन दोनों की मांग थी कि पूरे देश में चुनावों में मुसलमानों के लिए अलग से आरक्षित सीटें होना चाहिए जिसमें सिर्फ मुस्लिम उम्मीदवार ही खड़े हों और सिर्फ मुस्लिम मतदाता ही वोट डालें। इसी तरह जब हिन्दू कोड बिल के साथ ही मुस्लिम कोड बिल और समान नागरिक संहिता की बात उठी तो इसी मुस्लिम लीग के नेताओं ने संसद में उसका विरोध किया और शरिया कानून की वकालत की। सोचिए, मुस्लिम लीग के इस इतिहास एवं बुनियाद के बाद भी कोई उसे सौ फीसदी ‘सेकुलर’ पार्टी बताए, तब क्या कहा जाए? यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है कि तुष्टीकरण और वोटबैंक की राजनीति के कारण हमारे नेता सच कहने से बचते हैं।

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