शराब घोटाले के मामले में आरोपी दिल्ली के मुख्यमंत्री एवं आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल को सर्वोच्च न्यायालय चुनाव प्रचार के लिए अंतरिम जमानत दे दी है। उनके वकील 4 जून तक जमानत अवधि चाहते थे लेकिन न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि उन्हें 2 जून को आत्मसमर्पण करना होगा क्योंकि चुनाव की प्रक्रिया 1 जून को ही पूरी हो जाएगी। प्रश्न यह है कि आखिर आआपा क्यों चाहती थी कि केजरीवाल को 4 जून तक जेल से बाहर रहने की अनुमति मिले? क्या आआपा के मन में यह है कि यदि केंद्र में सरकार बदलती है तब अरविंद केजरीवाल वापस जेल जाने से आनाकानी करेंगे? याद रहे कि प्रवर्तन निदेशालय के 7 नोटिस के बाद भी केजरीवाल अपने बयान दर्ज कराने उपस्थित नहीं हुए थे। वे अलग-अलग बहानेबाजी बनाकर प्रवर्तन निदेशालय के नोटिशों की अनदेखी करते रहे। आखिर में न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद उन्हें गिरफ्तार किया जा सका। इस बात का पूरा अंदेशा है कि अरविंद केजरीवाल स्वयं को निर्दोष दिखाने के लिए जमकर राजनीतिक आडम्बर करेंगे। परंतु सत्य तो यही है कि फिलहाल उन्हें न्यायालय ने निर्दोष नहीं माना है। मामला विचाराधीन है उन्हें केवल चुनाव प्रचार करने के लिए ही अंतरिम जमानत दी गई है। यानी अब केजरीवाल खुलकर चुनाव प्रचार कर पाएंगे और देशभर में रैलियों में शामिल होकर स्वयं को राष्ट्रीय फलक पर स्थापित करने का प्रयास करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय की विभिन्न प्रकार से समीक्षाएं की जा रही हैं। जमानत को विरोध करते हुए प्रवर्तन निदेशालय ने जो प्रश्न उठाए, वे भी तार्किक हैं। निदेशालय ने उचित ही तर्क दिया है कि सामान्य नागरिक की तुलना में एक राजनेता किसी विशेषाधिकार का दावा नहीं कर सकता। अपराध करने पर उसे किसी अन्य नागरिक की तरह ही गिरफ्तार और हिरासत में लिया जा सकता है। किसी राजनेता के साथ किसान या व्यवसायी से अलग व्यवहार किया जाना उचित नहीं है। यह बात सही है कि यदि चुनाव प्रचार को अंतरिम जमानत का आधार बनाया जाएगा, तब इसी आधार पर किसी अपराध में जेल में बंद किसान भी फसल की कटाई के लिए और किसी कंपनी का निदेशक कंपनी की वार्षिक आम बैठक में भाग लेने के लिए जमानत मांग सकता है। एक आम नागरिक या राजनीतिक दल का कार्यकर्ता भी चुनाव प्रचार के लिए जमानत माँग सकता है। क्योंकि जो सुविधा केजरीवाल को दी गई है, वह आम नागरिक को भी दी जानी चाहिए। अन्यथा, न्यायालय की समदृष्टि पर प्रश्न उठाया जाएगा। न्याय की अवधारणा कहती है कि उसके लिए सब बराबर हैं। कानून की देवी की आँखों पर पट्टी भी इसलिए ही बाँधी गई है ताकि संदेश दिया जाए सके कि कानून व्यक्ति देखकर निर्णय नहीं करता अपितु साक्ष्यों एवं तथ्यों के आधार पर निर्णय सुनाए जाते हैं। यह प्रश्न बार-बार उठाया जाता है कि विशिष्ट व्यक्तियों के मामलों में न्यायालय अलग दृष्टिकोण अपनाता है और सामान्य व्यक्ति के मामले में अलग। इस प्रकार के निर्णय इस प्रकार की अवधारणा को बल देते हैं जो भारतीय न्याय व्यवस्था के संदर्भ में बिल्कुल भी उचित नहीं है। हाल ही में बाबा रामदेव के मामले में भी इसी प्रकार की अनुभूति की गई थी। बहरहाल, चुनाव प्रचार का अधिकार न मौलिक, न संवैधानिक और न ही कानूनी अधिकार है। अब तक किसी भी राजनीतिज्ञ को चुनाव प्रचार के लिए अंतरिम जमानत नहीं दी गई है। यह पहली बार है जब न्यायालय किसी नेता को चुनाव प्रचार के लिए अंतरिम जमानत दे रहा है। उम्मीद है कि न्यायालय का यह निर्णय भविष्य में किसी और मामले में उदाहरण नहीं बनेगा।
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