एक विशेष वर्ग द्वारा न्यायापालिका को लगातार लक्षित किए जाने से चिंतित देशभर के लगभग 600 अधिवक्ताओं ने भारत के मुख्य न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ को पत्र लिखकर न्यायालय एवं न्यायमूर्तियों का समर्थन किया है। देश के जाने-माने अधिवक्ता हरीश साल्वे और बार काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मनन कुमार मिश्रा सहित अन्य अधिवक्ताओं के इस पत्र ने न्यायिक क्षेत्र से लेकर राजनीतिक और वैचारिक गलियारों में हलचल मचा दी है। विशेषरूप से कांग्रेस और कम्युनिस्ट विचारधारा के नेता एवं तथाकथित बुद्धिजीवियों की बेचैनी साफ दिखायी दे रही है। दरअसल, अधिवक्ताओं ने जिस ‘विशेष वर्ग’ की ओर अंगुली उठायी है, उसमें इनका ही बोलबाला है। उनकी तकलीफ तब और बढ़ गई जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अधिवक्ताओं के पत्र को अपने सोशल मीडिया मंच पर साझा करते हुए लिख दिया कि “दूसरों को डराना और धमकाना कांग्रेस की पुरानी संस्कृति है। कई दशक पहले ही कांग्रेस ने प्रतिबद्ध न्यायपालिका का आह्वान किया था। वे अपने स्वार्थों के लिए दूसरों से प्रतिबद्धता चाहते हैं, लेकिन राष्ट्र के प्रति किसी भी प्रतिबद्धता से बचते हैं”। प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस और कम्युनिस्टों की कलई उस समय खोल दी है, जब इनकी ओर से यह शोर मचाया जा रहा है कि देश में संवैधानिक संस्थाएं स्वतंत्र नहीं रह गई हैं। कांग्रेस के शासनकाल में किस प्रकार न्यायपालिका में हस्तक्षेप किए गए हैं, यह सब इतिहास की पुस्तकों में दर्ज है। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े समूह प्रत्येक क्षेत्र में ‘दबाव समूह’ के रूप में काम करते हैं। उनके कार्यक्षेत्र से न्यायपालिका भी अछूती नहीं है। अधिवक्ताओं की यह चिंता व्यर्थ नहीं है कि देश में एक ‘विशेष समूह’ न्यायपालिका को कमजोर करने की कोशिश कर रहा है। न्यायपालिका की छवि को जनता के बीच में संदिग्ध करने के प्रयास उसकी ओर से लगातार किए जा रहे हैं। इसके साथ ही न्यायपालिका पर इस प्रकार से दबाव बनाने के प्रयत्न होते हैं कि विभिन्न मामलों में उनके पक्ष में निर्णय हो। यह विशेष समूह न्यायालयों की कार्यवाही में बाधा डालने की भी कोशिश करते हैं। हालांकि, किसी फिल्म के उदाहरण से यथार्थ की कल्पना नहीं की जा सकती लेकिन फिर भी कहना होगा कि ‘बस्तर : द नक्सल स्टोरी’ में इस प्रकार के दबाव समूहों की ओर संकेत किया गया है, जो एक गिरोह की तरह काम करता है। याद रखें कि जब भी उनके पक्ष में निर्णय नहीं आते, तब इस वैचारिक समूह से जुड़े लोग उसकी अतार्किक आलोचना करते हैं। उसमें बेमतलब खामियां निकालते हैं। न्यायमूर्तियों की छवि पर भी हमला करने से चूकते नहीं है। इस मामले में रंजन गोगोई और अभिजीत गंगोपाध्याय तक अनेक न्यायमूर्ति हैं, जिनके बारे में अनर्गल टिप्पणियां इस समूह से जुड़े लोगों द्वारा की गई हैं। वर्तमान मुख्य न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ को भी उन्होंने नहीं छोड़ा है। जबकि जब न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने मुख्य न्यायाधीश का पद संभाला था, तब इस वर्ग में प्रसन्नता की एक लहर थी। इस वर्ग को उससे पहले के सभी मुख्य न्यायाधीश पूर्वाग्रही नजर आए थे। उनकी छवि भंजन की हरसंभव कोशिशें इस समूह ने की थी। डीवाई चंद्रचूड़ के मुख्य न्यायाधीश बनने से इनके मन में एक उम्मीद जागी लेकिन कई मामलों में जब मुख्य न्यायाधीश ने न्यायपूर्ण बातें कहीं और निर्णय दिए तो ये समूह बहुत निराश हुआ। उसके बाद मुख्य न्यायाधीश के संबंध में भी अनर्गल टिप्पणियां करने से ये बाज नहीं आए। कुलमिलाकर यह समूह अपने वैचारिक हितों के साथ प्रतिबद्ध न्यायपालिका चाहता है। न्याय के सिद्धांत से इन्हें कुछ लेना-देना नहीं है। दु:ख की बात यह है कि यह समूह समाज में अराजकता का वातावरण बनाने की साजिशों में भी शामिल दिखायी देता है। इसलिए यह भारत की विश्वसनीय संस्थाओं, जिनमें न्यायपालिका भी शामिल हैं, के प्रति नागरिकों में अविश्वास का वातावरण बनाने के लिए विमर्श खड़े करता है। देश के लगभग 600 अधिवक्ताओं ने उसी ओर संकेत किया है और न्यायपालिका एवं न्यायमूर्तियों के समर्थन में खड़े होने का आह्वान किया है। न्यायपालिका सहित भारत की सभी संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा एवं विश्वसनीयता को बचाने के लिए इसी प्रकार की जागरूकता एवं प्रतिबद्धता आवश्यक है।
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