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विपक्षी एकजुटता पर संदेह

भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को रोकने के लिए विपक्ष के कई प्रमुख नेता साझा विपक्षी मोर्चा बनाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। इनमें सबसे आगे हैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। हालांकि उनसे पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी भरपूर प्रयास कर चुकी हैं लेकिन उन्हें नीतीश कुमार जैसी उत्साह बढ़ानेवाली सफलता नहीं मिली। पिछले कुछ समय से नीतिश कुमार ने साझा मोर्चा के विचार को लेकर राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे, अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, हेमंत सोरेन और नवीन पटनायक से लेकर अन्य प्रमुख नेताओं से मुलाकात कर चुके हैं। यानी भाजपा से अलग होकर अब नीतीश कुमार भाजपा को हराने के लिए पूरी ताकत लगा रहे हैं। इसे कोई नीतीश कुमार की प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय नेता बनाने की राजनीतिक महत्वाकांक्षा बता सकता है या यह भी कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लेकर नीतीश कुमार के मन में एक चिढ़ एवं द्वेष है, जो रह-रहकर बाहर आ जाता है। मोदी अंध विरोध के कारण ही नीतीश कुमार सब प्रकार की असहज स्थितियों का सामना करते हुए विपक्ष को एकजुट करने के लिए प्राणपर्ण से लगे हुए हैं। परंतु यहाँ स्मरण रखना होगा कि नीतीश कुमार की तरह ही लगभग सभी विपक्षी दलों के अपने-अपने राजनैतिक स्वार्थ, विचार एवं हेतु हैं, ऐसे में इस भानुमति के कुनबे को जोड़ने में नीतीश कुमार कितने सफल होंगे, फिलहाल कहा नहीं जा सकता। नीतीश कुमार के प्रयासों से विपक्षी दलों की बैठक पहले 12 जून को होनी थी, लेकिन कुछ विपक्षी दलों के नेताओं ने ऐन वक्त पर आने में असमर्थता जता दी।, अब यह बैठक 23 जून को प्रस्तावित है। 12 जून की बैठक के स्थिगित होने के कई निहितार्थ निकलकर सामने आ रहे हैं। एक, कांग्रेस सहित कुछ और विपक्षी दल साझा मोर्चे का चेहरा नहीं बनने देना चाहते हैं। दो, कर्नाटक चुनाव के परिणाम से उत्साहित कांग्रेस अब विपक्षी मोर्च के गठन को मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव तक टालना चाहती है। यदि उसे आगामी चुनाव में अपेक्षित सफलता मिलती है, तब संभव है कि कांग्रेस किसी विपक्षी मोर्चे का हिस्सा ही न बने। तीन, विपक्षी मोर्चे को लेकर अभी वह गंभीरता नहीं आई है, जिसकी आवश्यकता है। यह संकेत इसलिए भी मिल रहे हैं क्योंकि 12 जून की बैठक से पहले कांग्रेस समेत सभी दलों से नीतीश कुमार ने हामी भरवा ली थी, तभी बैठक की तारीख तय की गई। लेकिन ऐनवक्त पर कांग्रेस के नेताओं ने बैठक में शामिल होने में असमर्थता जता दी। अब इसकी क्या गारंटी है कि 23 जून से पहले कांग्रेस या दूसरे बड़े विपक्षी दल नीतीश कुमार को गच्चा नहीं देंगे? एक बात यह साफ समझनी चाहिए कि पिछले लोकसभा चुनाव में भी विपक्षी दलों ने एकजुटता का संदेश दिया था, जिसे जनता ने स्वीकार नहीं किया। अपितु जनता के बीच यह संदेश गया कि ईमानदार एवं दूरदर्शी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को रोकने के लिए विपक्षी दल एकजुट हो रहे हैं। जनता के बीच यह चर्चा तो अब भी जोर-शोर से है कि भ्रष्टाचार विरोध कार्रवाइयों ने विपक्षी मोर्चा बनाने के लिए तमाम राजनीतिक दलों को मजबूर कर दिया है। खैर, यह तो भविष्य ही बताएगा कि विपक्ष को एकजुट करने में नीतीश कुमार सफल होंगे या असफल और कहीं की ईंट-कहीं का रोड़ा जोड़कर टूट-फूटा विपक्षी मोर्चा बन भी गया, तब उसे जनता स्वीकार करेगी या पहले की तरह उस मोर्चे को संदेह की दृष्टि से देखेगी।

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