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सुरक्षा परिषद में ‘परोक्ष वीटो’ की आलोचना

भारत बार-बार यह कहता आ रहा है कि वर्तमान वैश्विक परिदृश्य के अनुसार सुरक्षा परिषद के विस्तार की आवश्यकता है। यह इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि सुरक्षा परिषद के कुछ सदस्यों की कार्यशैली परिषद के लक्ष्यों एवं सिद्धांतों के अनुकूल नहीं है। जैसे चीन अकसर आतंकवाद के मामले में मनमानी रवैया अपनाता है। वीटो की शक्ति का गलत ढंग से उपयोग करता है। इसी संदर्भ में भारत की हालिया टिप्पणियों को देखा जाना चाहिए। भारत ने एक बार फिर सुरक्षा परिषद और उसके कुछ सदस्यों की कार्यशैली की आलोचना की है। संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी प्रतिनिधि रुचिरा कंबोज ने कहा है कि सुरक्षा परिषद की प्रतिबंध समितियों में कुछ सदस्यों द्वारा प्रस्तावों को लंबित रखना ‘परोक्ष वीटो’ जैसा है। महासभा के एक संबोधन में उन्होंने रेखांकित किया है कि वीटो पहल संयुक्त राष्ट्र की व्यवस्था को मजबूत करने के उद्देश्य से स्थापित की गयी थी, पर अब इसका उपयोग परोक्ष रूप से और बिना समुचित जवाबदेही के किया जा रहा है। माना जा रहा है कि कंबोज का संकेत चीन की ओर है, जो अकसर पाकिस्तान में बैठकर वैश्विक स्तर पर आतंकी गतिविधियों का षड्यंत्र रचने वाले सरगनाओं को आतंकी सूची में डालने के प्रस्तावों को लटकाता रहता है। दो साल पहले महासभा ने एक प्रस्ताव पारित किया था कि अगर 15 सदस्यों की सुरक्षा परिषद में एक या अधिक स्थायी सदस्यों द्वारा वीटो के विशेष अधिकार का प्रयोग किया जाता है, तो दस दिन के भीतर महासभा की एक औपचारिक बैठक उस मुद्दे पर निर्णय लेने के लिए होनी चाहिए। इस प्रस्ताव का उद्देश्य था कि वीटो का इस्तेमाल करने वाले देश अपने फैसले के बारे में स्पष्टीकरण दें ताकि उनकी जवाबदेही तय हो सके। इस प्रक्रिया से बचने के लिए सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य संबंधित समितियों में ही प्रस्तावों को रोक देते हैं या उन्हें लटका देते हैं। उल्लेखनीय है कि सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों- अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस- को वीटो करने का विशेषाधिकार है। इनमें से कोई भी सदस्य अगर किसी प्रस्ताव के विरुद्ध मतदान करता है, तो 15 सदस्यों की सुरक्षा परिषद में बहुमत हासिल करने के बाद भी प्रस्ताव पारित नहीं हो पाता। रूस-यूक्रेन युद्ध, गाजा-इस्राइल मसले, हथियारों से संबंधित मुद्दे जैसे महत्वपूर्ण प्रश्नों पर वीटो व्यवस्था के कारण ठोस फैसले नहीं हो पा रहे हैं। स्थायी सदस्यों की आपसी तनातनी के कारण पारित हुए प्रस्तावों को भी लागू करने में बाधा आती है। भारतीय राजदूत ने उचित ही कहा है कि दुनिया के सामने मौजूद गंभीर चुनौतियों का सामना करने में सुरक्षा परिषद का रिकॉर्ड बेहद निराशाजनक रहा है। कुछ समय पहले विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा था कि सुरक्षा परिषद एक ‘पुराने क्लब’ की तरह है, जिसके सदस्य नये देशों को शामिल नहीं करना चाहते हैं क्योंकि उन्हें उनका नियंत्रण कमजोर होने की आशंका है। उन्होंने यह भी कहा था कि स्थायी सदस्य नहीं चाहते कि उनके आचरण पर सवाल उठाया जाए। स्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाकर और जवाबदेही तय कर ही सुरक्षा परिषद को प्रभावी बनाया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि इसी क्रम में उन्होंने यह भी कहा था कि संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में भारत को स्थायी सदस्य बनाने का समय आ गया है। इसे अधिक समय तक के लिए टाला नहीं जा सकता। यह भी कि चीन को छोड़कर शेष सभी सदस्य राष्ट्र भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाए जाने के लिए सहमत दिखते हैं। वैश्विक राजनीति में जिस प्रकार की भूमिका भारत निभा रहा है, उसके आधार पर भी कहा जा सकता है कि भारत को सुरक्षा परिषद का सदस्य बनाए जाने से भू-राजनीतिक संतुलन तो बनेगा ही, साथ ही परिषद के उद्देश्यों को प्राप्त करने की दिशा में भी आगे बढ़ना सुगम होगा।

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