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चीन की व्यर्थ की हरकत

चीन अपनी चालाकियों से बाज नहीं आ रहा है। एक ओर वह भारत से संबंध भी सुधारना चाहता है, दूसरी ओर अपनी विस्तारवादी मानसिकता के चलते ऐसी हरकत कर बैठता है, जिससे दोनों देशों के बीच खटास बढ़ जाती है। इस बार चीन ने भारत के अरुणाचल प्रदेश के अंदर स्थित 11 स्थानों के नाम बदलने घोषणा की। इससे पहले भी वह यह हरकत कर चुका है, तब भी भारत ने उसके इस कदम की आलोचना की थी। दरअसल, चीन शुरू से ही अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा करता आ रहा है। अपना दावा दिखाने के लिए चीन भारत की स्वतंत्रता के समय से अरुणाचल प्रदेश को अपने मानचित्र में भी दिखाता रहा है। हालांकि, उसके ऐसा करने से न तो तब अरुणाचल प्रदेश उसका हुआ और न ही अब नाम बदलने की व्यर्थ की कवायद से कुछ होगा। अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न अंग है। हमारे प्रदेश के स्थानों के नाम बदलने की चीन की हरकत हास्यास्पद ही कही जाएगी। बहरहाल, चीनी सरकार की इस घोषणा के समय को लेकर अवश्य ही प्रश्न उठाया जाना चाहिए। यह घोषणा ऐसे समय की गई है, जब कुछ सप्ताह बाद ही शंघाई कोऑपरेशन संगठन के सम्मेलन में सदस्य देशों के रक्षा मंत्री शामिल होने वाले हैं। इसके लिए चीनी रक्षा मंत्री ली शांगफू भी भारत आने वाले हैं। यही नहीं, इस बैठक के ही सिलसिले में अगले महीने चीनी विदेश मंत्री चिन गांग और जून में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग का भी भारत दौरा तय हो चुका है। ऐसे में स्वाभाविक ही भारत सरकार इस मसले को ज्यादा तूल नहीं देना चाहती। भारत सरकार की तरफ से तत्काल इस पर कोई औपचारिक प्रतिक्रिया भी नहीं जताई गई, लेकिन इससे दोनों देशों के रुख पर कोई फर्क नहीं पड़ता। चीन सरकार भारत के अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत कहती और उस पर अपना दावा जताती रही है। इस दावे को भारत स्वीकार नहीं करता, लेकिन अपनी तरफ से इसे रेखांकित करने के लिए चीन विभिन्न स्थानों को चीनी नाम देने का प्रयास करता रहता है। हाल के वर्षों में यह उसकी तीसरी ऐसी कोशिश है। इससे पहले भारत उसकी इन कोशिशों को खारिज कर चुका है। जाहिर है, इसका जमीनी हकीकत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला। ये इलाके भारत का अभिन्न हिस्सा हैं और बने रहेंगे। मगर विशेषज्ञों के मुताबिक इसके पीछे चीन की यह मंशा हो सकती है कि अगर कभी ये दावे अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में आए तो वहां वह अपने दावे को मजबूती देने के लिए इन कथित सबूतों का इस्तेमाल कर सके। गौर करने की बात यह भी है कि ऐसे हथकंडे चीन सिर्फ भारत के मामले में नहीं अपना रहा। साउथ चाइना सी और ईस्ट चाइना सी में भी उसने ऐसा ही किया है। मगर फिलहाल इन सांकेतिक कदमों में उलझने के बजाय यह देखने की जरूरत है कि चीनी नेताओं की आगामी भारत यात्राओं का इस्तेमाल करते हुए क्या दोनों देशों के बीच जारी तनाव को कम करने की कोई राह निकाली जा सकती है। ध्यान रहे, जून 2020 में गलवान घाटी में हुई हिंसक झड़प के बाद दोनों देशों के रिश्तों में जो गिरावट आई और विश्वास का जो संकट पैदा हुआ, वह अभी तक कायम है। इस बीच सैन्य और राजनयिक स्तर की कई दौर की बातचीत के जरिए विवाद के कई बिंदु सुलझाए गए, लेकिन सीमा पर दोनों तरफ सेना की बड़ी संख्या में तैनाती अभी भी बनी हुई है। यह स्थिति किसी के लिए भी फायदेमंद नहीं है। अगर दोनों तरफ से विश्वास बहाली की दिशा में उपयुक्त कदम उठाए जाएं और इसकी प्रभावी व्यवस्था बन जाए तो मतभेदों और विवादों के बीच भी सीमा पर शांति बनाए रखी जा सकती है, यह खुद इन दोनों देशों के रिश्तों का इतिहास साबित करता है। फिलहाल दोनों देशों को इसी लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

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