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विपक्षी गठबंधन को जोर का झटका

कांग्रेस के नेतृत्व में गठित तथाकथित विपक्षी गठबंधन नीतीश कुमार के अलग होते ही लगभग समाप्त हो गया है। स्मरण रहे कि तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी जैसे बड़े दल गठबंधन का हिस्सा जरूर दिख रहे हैं लेकिन ये कांग्रेस को आईना दिखा चुके हैं। तृणमूल कांग्रेस, पश्चिम बंगाल में अकेले चुनाव लड़ेगी। उसने राज्य में कांग्रेस के साथ किसी प्रकार की साझेदारी से इनकार कर दिया है। आआपा ने पंजाब में कांग्रेस के साथ एक भी सीट साझा करने की जगह सभी सीटों पर स्वतंत्र चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। केरल में कम्युनिस्ट पार्टी भी कांग्रेस के विरुद्ध खड़ी हैं। कुल मिलाकर जिस प्रकार का बेमेल एवं नीति विहीन यह गठबंधन था, उसकी ऐसी ही परिणीति अपेक्षित थी। लोकसभा चुनाव समीप आते–आते अन्य स्थानीय राजनीतिक दल भी इस गठबंधन से दूरी बना सकते हैं। फिलहाल तो सबसे तगड़ा झटका नीतीश कुमार ने दिया है। एक समय था जब नीतीश कुमार ने ही दौड़–धूप करके विपक्षी गठबंधन को एक स्वरूप प्रदान किया। यह तो सभी मानते हैं कि नीतीश ऐसे नेता हैं जिन्होंने पिछले साल विपक्षी गठबंधन बनाने के लिए सभी पार्टियों को एक साथ लाने के लिए काम किया था। उन्हें गठबंधन में प्रमुख पद की उम्मीद की थी। लेकिन तृणमूल कांग्रेस और आआपा जैसी पार्टियों की बेचैनी के बीच ऐसा नहीं हो सका। यह भी याद रखें कि विपक्षी गठबंधन के नामकरण में की गई चालाकी का भी नीतीश कुमार ने विरोध किया था। लेकिन एक बार जब विपक्षी गठबंधन का स्वरूप बन गया तो कांग्रेस ने नीतीश कुमार को पूरी तरह अनदेख करने प्रयास किया। संभवतः यही कारण रहा होगा कि वर्ष 2017 के विपरीत, जब उसने महागठबंधन से अलग होने के लिए राजद को दोषी ठहराया था, इस बार जद (यू) कांग्रेस पर अंगुली उठा रही है। वह कांग्रेस पर अन्य गठबंधन के सहयोगियों को बहुत अधिक जगह देने का आरोप लगा रही है। राहुल गांधी की तरफ से गठबंधन के बारे में बात करने के बजाय कांग्रेस की भारत जोड़ो न्याय यात्रा शुरू करने के बाद जद (यू) को भी गठबंधन में बने रहने का कोई कारण नजर नहीं आया। वैसे भी विपक्षी गठबंधन में जिस प्रकार की स्थिति जदयू की बनने लगी थी, वह पार्टी के हित में नहीं था। राजनीतिक गलियारों में तो यहां तक खबर हो गई थी कि जदयू को तोड़ने के प्रयास किए जा रहे हैं। इन चर्चाओं में कुछ तो सच्चाई रही होगी तभी नीतीश कुमार ने ललन सिंह को अध्यक्ष पद से हटाकर स्वयं पार्टी की कमान अपने हाथ में ले ली। बिहार में महागठबंधन से अलग होकर एक तरह से नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी के भविष्य को ध्यान में रखते हुए एक व्यावहारिक निर्णय लिया। नीतीश कुमार के इस निर्णय से लोकसभा चुनाव से पूर्व कांग्रेस और उसके गठबंधन को जोर का झटका लगा है। नीतीश कुमार एक बड़े नेता हैं, उनका इस तरह अलग होने से जनता में यही संदेश गया है कि विपक्षी गठबंधन का कोई राजनीतिक भविष्य नहीं है। एक बार फिर भाजपा की ही सरकार आएगी इसलिए स्वयं को मजबूत स्थिति में रखने के लिए नीतीश कुमार ने भाजपा का दामन थामा है। वहीं, भाजपा ने भी अपना निर्णय बदलकर नीतीश कुमार के लिए एक बार फिर दरवाजे इसलिए खोले ताकि विपक्षी गठबंधन की हवा निकाली जा सके। यह संभव था कि जिस प्रकार का वातावरण देश में बना है, उसके कारण भाजपा को बिहार में बड़ी सफलता मिल जाती लेकिन अभी के निर्णय से कांग्रेस, विपक्षी गठबंधन और उसके कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटेगा, जिसका बड़ा असर बड़े राजनीतिक फलक पर होगा।

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