बिहार के भागलपुर में गंगा नदी पर बन रहा पुल दूसरी बार ढह गया। पुल ढहने का वीडियो देखनेवाले के मन में यही भाव आ रहा होगा कि भ्रष्टाचार का चरम क्या है? भ्रष्टाचार कहां जाकर रुकेगा? उस पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव की गैर-जिम्मेदार बयानबाजी बताती है कि सरकार इस घटना के प्रति कतई गंभीर नहीं है। सरकार के लिए यह सामान्य बात है। इस पूरे प्रकरण को देखें तो बहुत चिंताजनक पहलू यह सामने आता है कि खुद सरकार भी इस घटना पर बंटी हुई दिख रही है। रविवार शाम को पुल ढहने का समाचार जैसे ही सामने आया, उसके बाद समाचार समिति की ओर से यह जानकारी भी सामने आई कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने घटना की जाँच के आदेश दे दिए हैं। मगर उसके बाद उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने प्रेसवार्ता करके कहा कि पुल के निर्माण कार्य में शुरू से गड़बड़ थी, इसके डिजाइन में समस्या थी। इस वजह से सरकार ने आईआईटी-रुड़की से संपर्क किया था और विशेषज्ञों की एक समिति इस मामले को देख रही थी। उनके अनुसार, इस पुल को नए सिरे से बनवाना है और पुल के एक हिस्से का गिराया जाना उसी योजना के अंतर्गत की गई कार्रवाई है। अब प्रश्न यह है कि अगर यह सब सोचे-समझे ढंग से हुआ है तो फिर मुख्यमंत्री ने जाँच के आदेश क्यों दिए? जाहिर है, इस पूरे मामले में कुछ न कुछ गफलत है। या तो सरकार के अंदर आपसी संवाद और तालमेल की कमी है या फिर इस मामले की सूचना जारी करने की प्रक्रिया में गड़बड़ी हुई है। जहां जो भी गड़बड़ हो, सबसे पहले तो सरकार को संवाद की प्रक्रिया दुरुस्त करने पर ध्यान देना होगा। ऐसे संवेदनशील मामलों में सरकारी कामकाज को लेकर इस तरह की तस्वीर सामने आना न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि किसी आपात स्थिति में घातक साबित हो सकता है। परंतु इन सब बातों के बाद भी पुल बनने का मामला सवालों के घेरे से बाहर नहीं हो जाता। कुल मिलाकर बिहार सरकार का रवैया बताता है कि वहाँ नेता-अफसर भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं। नीतीश कुमार ने भाजपा से अलग होकर और राजद के साथ मिलकर सरकार तो बना ली, लेकिन पहले की तरह सरकार पर अब उनका नियंत्रण नहीं है। राजद के नेता एवं कार्यकर्ता, अपने हिसाब से कहते, सुनते और काम करते हैं। बहरहाल, एक और हैरानी की बात है कि मोदी सरकार की छोटी-मोटी बातों पर भी एकसुर में निशाना साधनेवाले बुद्धिजीवी एवं मुख्य विपक्षी दल के नेता भागलपुर की घटना पर चुप्पी साधकर बैठ गए हैं। मानो कुछ हुआ ही न हो। बुद्धिजीवी वर्ग का यह रवैया भी सरकारों को भ्रष्टाचार के लिए प्रोत्साहित करता है। एक ही पुल के दो बार ढहने की घटना ने साफ कर दिया है कि बिहार में आधारभूत विकास से संबंधित कामकाज की क्या स्थिति है? होना तो यह चाहिए था कि जब पुल पहली बार गिरा था, उसके बाद जिम्मेदार अधिकारियों एवं निर्माण कर रही संस्था पर जुर्माना लगाया जाता और निर्माण की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए निगरानी समिति बनायी जाती, जिसकी देखरेख में पुल के निर्माण की गतिविधि संचालित होती। परंतु ऐसा होने की जगह, सार्वजनिक रूप से थोड़ा-बहुत कहा-सुनी के बाद जिम्मेदारों को फिर से गड़बड़ी करने के लिए खुला छोड़ दिया गया। उल्लेखनीय है कि इस पुल पर काम 2014 में शुरू हुआ था और इसे 2019 तक ही पूरा हो जाना था। लेकिन, उसके बाद यह समयसीमा चार बार बढ़ाई जा चुकी है। बहरहाल, इस पूरे मामले की ढंग से जाँच करवाकर, जिम्मेदारी तय करने और संबंधित व्यक्तियों के खिलाफ उपयुक्त कार्रवाई जल्द से जल्द करने की आवश्यकता है। हालांकि बिहार की वर्तमान सरकार ऐसी कोई कार्रवाई करेगी, इसकी उम्मीद बहुत कम है।
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