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बूंद-बूंद सहेजने के लिए रहें तैयार

देश के अलग-अलग हिस्सों में मानसून ने दस्तक दे दी है। गर्मी में हमने देश के विभिन्न हिस्सों में जल संकट की भयावहता को अनुभव किया है। इसलिए नागरिक समाज का कर्तव्य है कि वह प्रकृति के अनुपम उपहार ‘जल’ की कीमत को समझे और उसे सहेजने का उपक्रम करें। बारिश का मौसम ऐसा ही एक अवसर होता है, जब हम वर्षा जल को सहेज कर जल संकट की चुनौती से बहुत हद तक पार पा सकते हैं। याद हो अपने दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘कैच द रैन’ अभियान चलाने का आह्वान किया था। उन्होंने देश के नागरिकों से आग्रह किया था कि वर्षा जल की एक-एक बूंद को हमें सहेजना चाहिए। वर्षा जल व्यर्थ ही बहकर नहीं जाना चाहिए। यदि हमने वर्षा जल को सहेजने में गंभीरता नहीं दिखायी तब जल संकट और गहराता जाएगा। हमें स्मरण रखना चाहिए कि हर साल तापमान बढ़ते जाने से देश के विभिन्न हिस्सों में पेयजल की कमी की समस्या गंभीर होती जा रही है। सूखे क्षेत्रों और अनेक महानगरों में तो यह बहुत गंभीर समस्या का रूप धारण कर चुकी है। कुछ समय पहले दक्षिण में बेंगलुरु में पानी के लिए कई दिनों तक हाहाकार मचा रहा था। वहां अभी भी स्थिति सामान्य नहीं हो पायी है कि दिल्ली में जल संकट आ खड़ा हुआ है। मध्यप्रदेश के कई हिस्सों में पानी की सप्लाई कम करनी पड़ गई। अनेक शहरों में आपूर्ति बाधित हुई है। हमारे देश में दुनिया की 18 प्रतिशत जनसंख्या बसी हुई है, पर साफ पानी केवल चार प्रतिशत ही हमारे हिस्से है। यदि हमने दूरदर्शिता के साथ नदियों, जलाशयों, भूजल और वर्षा जल का संरक्षण किया होता तथा पानी के उपभोग को नियंत्रित रखा होता है, तो आज की स्थिति पैदा ही नहीं हो पाती। निश्चित रूप से धरती के बढ़ते तापमान के साथ जलवायु में तेजी से बदलाव आ रहा है। यह बदलाव पृथ्वी पर सभी जीवों के अस्तित्व के लिए खतरा बनता जा रहा है। इस खतरे के लिए भी मानवीय उपभोग उत्तरदायी है। हमारे देश में नदियों, जलाशयों, भूजल और बरसात से जितना पानी उपलब्ध है, वह हमारी वर्तमान और भविष्य की आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त है। पर अंधाधुंध बढ़ते शहरीकरण ने बड़ी संख्या में जलाशयों और छोटी नदियों को निगल लिया। जमीन पर कंक्रीट पसार कर हमने बारिश के पानी को मिट्टी में जाने और भूजल के रिचार्ज होने की प्रक्रिया को अवरुद्ध कर दिया। इस गलती के कारण पानी की कमी ही नहीं, औचक बरसात से शहरों में बाढ़ आने की घटनाओं में भी बढ़ोतरी हुई है। अधिक समय नहीं बीता है, जब बेंगलुरु में झीलों एवं तालाबों की भरमार थी तथा दिल्ली में भी कई जलाशय होते थे। हमें देश के तालाबों पर गहरा अध्ययन करनेवाले अनुपम मिश्र की पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ का अध्ययन करना चाहिए, उसमें मध्यप्रदेश के तालाबों का भी जिक्र है। ये तालाब हमारे नगरों एवं गाँवों की प्यास बुझाने के साथ ही उन्हें आवश्यक कार्यों के लिए जल उपलब्ध कराते थे। लेकिन विकास की बेतरतीब दौड़ में हमने अपने जलस्रोतों को भुला दिया। यदि हम चाह लें तो आज भी पुराने तालाबों और अन्य जलस्रोतों को जीवित करके एवं नये स्रोत बनाकर जल संरक्षण के अनुपम उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं। देश में अनेक स्थानों पर संवेदनशील लोग जल संरक्षण के अनुकरणीय उदाहरण हमारे सामने प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें उनके प्रयासों को गति देनी चाहिए और अपने यहाँ भी जल संरक्षण के उपायों को अविलम्ब व्यवहार में लाना चाहिए। अन्यथा यह संकट और गंभीर रूप धारण करता जायेगा।

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