कांग्रेस की वर्तमान स्थिति इसलिए भी है क्योंकि वह भारतीय जनता पार्टी से लड़ने की बजाय सामाजिक संगठनों एवं संवैधानिक संस्थाओं को निशाना बनाने में अपनी ऊर्जा खर्च कर देती है। सर्वोच्च न्यायालय से ईवीएम के मामले में निर्णय आने के बाद अब कांग्रेस ने चुनाव आयोग को बदनाम करने के लिए नये बहाने खोज लिए हैं। कांग्रेस के शीर्ष नेताओं की ओर से कभी आचार संहिता के पालन कराने में भेदभाव के आरोप लगाए जा रहे हैं, कभी चुनाव आयोग द्वारा की जानेवाली औपचारिक जाँच प्रक्रिया को निशाना बनाया जा रहा है और कुछ नहीं तो मतदान प्रतिशत को लेकर ही चुनाव आयोग की विश्वसनीयता को संदिग्ध बनाने की साजिश की जा रही है। कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक दलों को यह बात भली प्रकार समझनी चाहिए कि किसी भी संवैधानिक संस्था की विश्वसनीयता को संदिग्ध सिद्ध करके उसे चुनाव में जीत नहीं मिलेगी। चुनाव में जीतने के लिए तो मतदाताओं का विश्वास अर्जित करना होता है और अपनी नीतियों को लोकहितैषी सिद्ध करना होता है। राजनीतिक दलों को इन्हीं दो बातों पर अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए। चुनाव आयोग को कोसने और उसके संदर्भ में भ्रम उत्पन्न करने से किसी को कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिल सकता। दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि भारतीय राजनीति में सबसे अधिक अनुभवी राजनीतिक दल कांग्रेस के अनुभवी नेता ही गलत उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। जिस प्रकार से मतदान प्रतिशत के आंकड़े को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जन खड़गे की ओर से चुनाव आयोग को निशाने पर लिया जा रहा है, उसके पीछे सस्ती राजनीति ही अधिक दिखती है। यह उचित ही है कि चुनाव आयोग ने कांग्रेस अध्यक्ष के मिथ्यारोपों का कड़ा उत्तर दिया है, जिससे कांग्रेस तिलमिला गई है और नये सिरे से चुनाव आयोग पर हमलावर हो गई है। चुनाव आयोग ने पांच पन्नों के जवाब में मतदान आंकड़ा जारी करने में कुप्रबंधन और देरी के आरोपों को खारिज करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे के आरोपों को अनुचित, तथ्यहीन और भ्रम फैलाने के पक्षपातपूर्ण और जानबूझकर किए गए प्रयास को प्रतिबिंबित करने वाला करार दिया। आश्चर्य है कि मतदान की समूची प्रक्रिया का बारीक ज्ञान रखनेवाले अनुभवी नेता मल्लिकार्जन खड़गे भी गैर-जिम्मेदार बयानबाजी कर रहे हैं। चुनाव आयोग से लेकर संविधान, आरक्षण और अन्य व्यवस्थाओं के बारे में भ्रमित बयानबाजी करने के लिए उन पर किसी का दबाव है या फिर उन्होंने भी इस बयानबाजी को अपनी रणनीति का हिस्सा बना लिया है। यह बात मल्लिकार्जन खड़गे जैसे नेता भली प्रकार जानते ही होंगे कि मतदान के आंकड़े में किसी भी प्रकार का हेर-फेर संभव नहीं है क्योंकि मतदान प्रतिशत का सारा विवरण प्रत्येक राजनीतिक दल के पास भी पहुँचता है। मतदान केंद्रों में राजनीतिक दलों की ओर से पोलिंग एजेंट बैठाए जाते हैं। राजनीतिक दलों के इन पोलिंग एजेंट के पास मतदान के समूचे आंकड़े होते हैं अपितु कहना होगा कि चुनाव आयोग, किस मतदान केंद्र पर, कितना मतदान हुआ, यह जानकारी राजनीतिक दलों के इन्हीं पोलिंग एजेंटों के हस्ताक्षर से जारी करता है। यह डेटा एकत्र करके अंतिम मतदान प्रतिशत का आंकड़ा जारी करने में समय लगता ही है। इसलिए यह बेतुका और शरारतपूर्ण आरोप है कि चुनाव आयोग ने दो-तीन दिन बात अचानक से मतदान प्रतिशत बढ़ा दिया है। यदि कांग्रेस और मल्लिकार्जुन खड़गे को किसी प्रकार का संदेह है तब उन्हें सबसे पहले अपने पोलिंग एजेंटों से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण कराना चाहिए। उसमें और चुनाव आयोग के आंकड़े में कोई अंतर निकलता है, तब आरोप लगाना तर्कपूर्ण माना जा सकता है। फिलहाल तो यही कहना होगा कि कांग्रेस का प्रयास है कि चुनाव आयोग की भूमिका को संदिग्ध कर दिया जाए ताकि अपनी पराजय के वास्तविक कारणों पर थोड़ा पर्दा डाला जा सके।
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