लोकसभा चुनाव से लेकर विधानसभा चुनाव से पहले अक्सर वोटिंग मशीन से छेड़छाड़ का मामला उठता रहा है। विपक्ष लगातार वोटिंग मशीन से छेड़छाड़ का आरोप लगाता रहता है। कांग्रेस इस मामले में दिग्भ्रम का शिकार दिखायी देती है। एक ओर कांग्रेस ने घोषणा-पत्र में ईवीएम से ही चुनाव कराए जाने का वायदा किया है, वहीं दूसरी ओर उसके कई वरिष्ठ नेता मतपत्र से चुनाव कराने के लिए अभियान चला रहे हैं। मध्यप्रदेश की राजगढ़ लोकसभा सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह का तो प्रयास है कि अपने क्षेत्र में 384 से अधिक उम्मीदवारों को चुनाव में खड़ा कर दिया जाए, ताकि चुनाव आयोग को मजबूरी में मतपत्र से मतदान कराना पड़े क्योंकि 384 से अधिक उम्मीदवार होने पर ईवीएम मशीन का उपयोग संभव नहीं है। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि पार्टी लाइन और नेताओं के विचार एवं व्यवहार में कोई सामंजस्य ही नहीं दिखायी देता है। कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व तय कर ले कि उसे ईवीएम पर भरोसा है या नहीं? ताकि जनता भी उनकी समझदारी के बारे में एक स्थायी मत बना सके। बहरहाल, ईवीएम को लेकर एक नया मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा है, जिसमें न्यायालय ने फैला सुरक्षित रखा है। कांग्रेस की ओर से माँग की जा रही है कि मतपत्र से ही चुनाव कराए जाएं अन्यथा वीवीपैट की सभी पर्चियों की गिनती की जाए। इस मामले में याचिकाकर्ता एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के वकील प्रशांत भूषण यह तर्क दे रहे थे कि कैसे अधिकांश यूरोपीय देश, जिन्होंने ईवीएम के माध्यम से मतदान का विकल्प चुना था, वापस कागज के मतपत्रों पर लौट आए हैं। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने महत्वपूर्ण उत्तर दिया है, जो हमें उस दौर की याद दिलाता है, जब बाहुबली मतपत्र की पेटियां या तो लूटकर ले जाते थे या फिर उन्हें बदल देते थे। इसके अलावा बहुत सारे मतपत्रों को निरस्त कर दिया जाता था। मतपत्रों की गिनती में भी जमकर धांधली होती थी। प्रशांत भूषण के तर्क पर न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने कहा कि हम अपनी जिंदगी के छठे दशक में हैं। हम सभी जानते हैं कि जब मतपत्रों से मतदान होता था, तब क्या समस्याएं हुआ करती थी। हो सकता है आपको पता नहीं हो, लेकिन हम भूले नहीं हैं। न्यायमूर्ति खन्ना की यह टिप्पणी बहुत महत्व की है। ईवीएम को लेकर चल रही बहस के बीच हमें उस दौर को नहीं भूलना चाहिए, जब मतपत्रों से मतदान होता था। निष्पक्ष और पारदर्शी व्यवस्था में जो नेता लगातार पराजय का सामना कर रहे हैं, वे उसी दौर में भारत के लोकतंत्र को ले जाना चाहते हैं, जहाँ वे मतपत्रों की लूट करके जीत जाते थे। भारत और जर्मनी की तुलना पर भी न्यायालय ने याचिकाकर्ता के वकील को निरुत्तर कर दिया। न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने प्रशांत भूषण को आईना दिखाया कि जर्मनी की जनसंख्या केवल 6 करोड़ है, जबकि भारत में कुल पंजीकृत मतदाताओं की संख्या ही 97 करोड़ है। जरा सोचिए कि यदि सौ प्रतिशत मतदान हो गया तब 97 करोड़ वीवीपैट की पर्चियां गिनने में किस तरह की अव्यवस्था खड़ी होगी। 50 प्रतिशत भी मतदान हुआ, तब भी कठिनाई बहुत है। न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा स्पष्ट कहा है कि समस्या तब उत्पन्न होती है जब मानवीय हस्तक्षेप होता है, इसी से समस्या बढ़ जाती है। यानी 50-60 करोड़ वीवीपैट पर्चिंयों को जब गिना जाएगा, तब जरा भी चूक होने पर हंगामा खड़ा होगा। प्रोपेगेंडा खड़ा किया जाएगा। इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय ने प्रशांत भूषण के एक और तर्क को खंडित कर उन लोगों को आईना दिखाया है, जो यह दावा करते हैं कि ईवीएम में अधिकांश मतदाताओं का विश्वास नहीं है। जब प्रशांत भूषण दलील रख रहे थे कि अधिकांश मतदाता ईवीएम पर भरोसा नहीं करते तब न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने उन्हें टोकते हुए पूछा- “आपने कहा कि अधिकांश मतदाता ईवीएम पर भरोसा नहीं करते। आपको ये डेटा कैसे और कहां से मिला?” इसके जवाब में प्रशांत भूषण ने कहा- “एक सर्वेक्षण हुआ था”। न्यायालय ने कहा कि इस प्रकार के निजी सर्वेक्षण विश्वसनीय नहीं है। न्यायालय ऐसे किसी सर्वेक्षण पर विश्वास नहीं कर सकता। अभिप्राय है कि ईवीएम के विरोध में दिए जानेवाले तर्क ही न्यायालय के कठघरे में खड़े नजर आए। जो भी हो, न्यायालय इस मामले में अंतिम फैसला देगा जिसे बेहतर होगा कि सभी आदर दें। पिछले दिनों कई फैसलों को लेकर अनावश्यक राजनीतिक वितंडा खड़े किए जा चुके हैं।
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