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पुस्तकों का मेला क्यों है अलबेला

ललित गर्ग
इंसान की ज़िंदगी में विचारों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है। वैचारिक क्रांति एवं विचारों की जंग में पुस्तकें सबसे बड़ा हथियार है। लेकिन यह हथियार जिसके पास हैं, वह ज़िंदगी की जंग हारेगा नहीं। जब लड़ाई वैचारिक हो तो पुस्तकें हथियार का काम करती हैं। पुस्तकों का इतिहास शानदार और परम्परा भव्य रही है। पुस्तकें मनुष्य की सच्ची मार्गदर्शक हैं। पुस्तकें सिर्फ जानकारी और मनोरंजन ही नहीं देती बल्कि हमारे दिमाग को चुस्त-दुरुस्त रखती हैं। आज डिजिटलीकरण के समय में भले ही पुस्तकों की उपादेयता एवं अस्तित्व पर प्रश्न उठ रहा हो लेकिन समाज में पुस्तकें पुनः अपने सम्मानजनक स्थान पर प्रतिष्ठित होंगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। पुस्तकों पर छाये धुंधलकों को दूर करने के लिये एवं पुस्तक की प्रासंगिकता को नये पंख देने की दृष्टि से लेखक, पुस्तक प्रेमी और प्रकाशकों का ’महाकुंभ’ यानी नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला 2024 का आयोजन 10 से 18 फरवरी के बीच दिल्ली के प्रगति मैदान में हो रहा है।
इस बार पुस्तक मेले की थीम ‘बहुभाषी भारत एक जीवंत परंपरा’ रखी गई है। हर साल की तरह इस साल भी मेले का स्वरूप काफी बड़ा होगा, जहां हिंदी, इंग्लिश के अलावा क्षेत्रियों भाषाओं की किताबें देखने को मिलेंगी वहीं देश-विदेश के 1500 से अधिक प्रकाशक पुस्तक मेले में भाग लेंगे। इस बार अतिथि देश के रूप में सऊदी अरब का चयन किया गया है। 51 साल से चल रहे पुस्तक मेले का आयोजक नेशनल बुक ट्रस्ट (एनबीटी) है।
विश्व पुस्तक मेला अपनी उपयोगिता एवं प्रासंगिकता को लेकर प्रश्नों के घेरे में हैं। पुस्तक मेले पर धार्मिकता एवं साम्प्रदायिकता का संकीर्ण घेरा बनना चिन्ता का विषय है। साहित्यकारों से अधिक धर्मगुरुओं, पोंगा-पंडितों, ज्योतिषियों- तांत्रिकों का वर्चस्व बढ़ना मेले के वास्तविक उद्देश्य से भटकाता है। मेले के दौरान प्रकाशकों, धार्मिक संतों, विभिन्न एजेंसियों द्वारा वितरित की जाने वाली निशुल्क सामग्री भी एक आफत है। यह बात दीगर है कि इस दौरान प्रगति मैदान के खाने-पीने के स्टॉल पर पुस्तक की दुकानों से अधिक बिक्री होती है। पार्किंग, मैदान के भीतर खाने-पीने की चीजों के बेतहाशा दाम, जिनसे यदि निजात पा लें, तो सही मायने में विश्व पुस्तक मेला, विश्व स्तर का होगा।
मेले की संरचना में खामियों का ही परिणाम है कि मेले में पाठकों की संख्या घटी है और उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ी है। लोग यहां किताबें खरीदने के बजाय उत्पाद खरीदने आ रहे हैं। इसीलिए कोई अपने बच्चे की अंग्रेजी सुधारने के लिए किताब खरीद रहा है तो कोई पेट की चर्बी कम करने के लिए किताब या पाउडर खरीद रहा है। इन सभी कारणों से उपभोक्तावाद को बढ़ावा देने वाले साहित्य की लोकप्रियता बढ़ी है जबकि फिक्शन, नॉन-फिक्शन और जीवन मूल्यों से जुड़ी किताबों की मांग कम हुई है। पिछले कुछ वर्षों से मेले का रंग बहुत बदल गया है। अब यहां कोई सार्थक बहस नहीं होती, जैसी पहले हुआ करती थी। आज समस्या पठनीयता की नहीं, बल्कि उपलब्धता की है।
पुस्तक मेले में ऐसी सार्थक चर्चाएं हो और सकारात्मक वातावरण बनाया जाये ताकि पुस्तकों की अधिक से अधिक लोगों तक पहुँच हो जाए। इसके लिए जरूरी है कि ऐसी जनजागरूकता पैदा कि जाये ताकि अच्छी किताबों की घरेलू या सार्वजनिक लाइब्रेरी तक पहुंच सुनिश्चित हो सके। यह एक चुनावी मुद्दा भी बनना चाहिए और चुनाव के दौरान मतदाताओं को अपने प्रतिनिधि से गुडलाइब्रेरी खोलने की मांग करनी चाहिए। अस्पतालों, होटलों, रेल्वे स्टेशनों में पुस्तकालय स्थापित किये जा सकते हैं ताकि वहां आने वाले लोगों का खाली समय का उपयोग मानसिक एवं बौद्धिक विकास में हो सके। वैश्वीकरण के दौर की हर चीज बाजार बन गयी है, लेकिन पुस्तकें- खासकर हिंदी की अभी इस श्रेणी से दूर हैं।
पिछले कुछ वर्षों से पुस्तक मेला पर बाजार का असर दिख रहा है। असल में पुस्तक भी इंसानी प्यार की तरह होती हैं जिससे जब तक बात न करो, रूबरू न हो, हाथ से स्पर्श न करो, अपनत्व का अहसास देती नहीं है।

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