157
- आचार्य पवन त्रिपाठी
60 की उम्र पार कर चुके लोगों के जेहन में 1971 की कुछ यादें अभी भी ताजा होंगी। जब रोज सुबह आने वाले अखबारों में खबरें छपती थीं कि पाकिस्तान के समर्थन में अमेरिका का सातवां बेड़ा निकल चुका है, या यहां–वहां पहुंच गया है। आज उसी अमेरिका की संसद में भारतीय प्रधानमंत्री के लगभग एक घंटे के भाषण पर 79 बार तालियां बजना और 15 बार स्टैंडिंग ओवेशन मिलना आश्चर्यजनक नहीं है क्याॽ है। दुनिया मान भी रही है। लेकिन भारत के कुछ लोग यह मानने को तैयार नहीं हैं। आज के युग में दुनिया के किसी भी देश के लिए विदेश नीति के मोर्चे सफल होना सबसे बड़ी जरूरत होती है। इसी से उसकी आर्थिक–सामाजिक प्रगति जुड़ी होती है। विदेश नीति कोई एक दिन में परवान चढ़ने वाली चीज नहीं होती। इसके लिए कई मोर्चों पर सतत प्रयास करने पड़ते हैं। अलग–अलग देशों के साथ बड़ी सावधानी से कदम बढ़ाने पड़ते हैं। खासतौर से तब जब रूस–यूक्रेन युद्ध जैसी स्थिति चल रही हो। ऐसे में आप रूस से कच्चा तेल भी खरीद रहे हों, यूक्रेन से बात भी कर रहे हों, और अमेरिका की संसद में तालियां बटोरकर स्टैंडिंग ओवेशन भी ले रहे हों, तो यह आश्चर्यजनक नहीं लगता क्याॽ ये आश्चर्यजनक उन्हीं को नहीं लगता, जिनकी आंखों पर मोदी विरोध की पट्टी बंधी हुई हो। भारत जैसा दुनिया की सबसे बड़ी आबादी का देश आज तब तक प्रगति नहीं कर सकता, जब तक कि उसे साधनों–संसाधनों के मोर्चे पर अन्य सक्षम देशों से तकनीकी मदद न मिल पाए। ये मदद कोई यों ही तो नहीं कर देता। विदेश नीति सीधा लेन–देन का विषय है। सामनेवाले को हम ताकतवर दिखाई देंगे, तो ही वह हमसे हाथ मिलाने को तैयार होगा। वरना मेहरबानी का लाल गेहूं तो 1960 में भी अमेरिका से हम पाते ही रहे हैं। आज हाथ मिलाना तो बहुत पीछे छूट चुका है। अब तो पैर छुए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री की सलाह पर सिडनी में लखनऊ की चाट और जयपुर की जलेबियां खाई जा रही हैं, और अमेरिकी संसद में उनके भाषण पर तालियां पीटी जा रही हैं, ऑटोग्राफ लिए जा रहे हैं। आज हम इस स्थिति में पहुंचे हैं, तभी भारत और अमेरिका एक साथ मिलकर पाकिस्तान को आतंकी गतिविधियां रोकने के लिए सख्त हिदायत देने की स्थिति में आ सके हैं।