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ब्रिटेन में लीड्स क्यों सुलग उठा?

  • बलबीर पुंज
    बीते दिनों ब्रिटेन के लीड्स स्थित हेयरहिल्स उपनगर में जो कुछ हुआ, वह क्यों हुआ और उससे हम क्या सबक सीख सकते हैं? इसके दो पहलु हैं,जिस पर विस्तृत चर्चा करने से पहले यह जानना जरूरी है कि 18 जुलाई को हेयरहिल्स क्यों सुलग उठा? इस क्षेत्र के लक्सर स्ट्रीट में ‘बाल कल्याण संस्था’ के कर्मचारियों द्वारा बच्चों को उनके परिवार से अलग करने और जबरन ‘चाइल्ड केयर होम’ में रखने के बाद उपद्रव शुरू हुआ था। परिवार के चार बच्चों में से एक की पिटाई का वीडियो किसी पड़ोसी ने शहर की बाल कल्याण एजेंसी को भेज दिया था। बच्चों को पीटना ब्रिटेन में गंभीर अपराध माना जाता है। जब एजेंसी जांच के बाद पुलिस के साथ उन बच्चों को अपने संरक्षण में लेने पहुंची, तब परिवार के लोगों ने हंगामा शुरू कर दिया।
    पूरा मामला हेयरहिल्स के खानाबदोश रोमा (जिप्सी) समुदाय से जुड़ा था, जिनके लोगों ने पहले झगड़ा शुरू किया। परंतु बाद में पुलिस पर अपना गुस्सा निकालने के लिए पाकिस्तानी-बांग्लादेशी मूल के मुसलमान भी इसमें कूद पड़े और देखते ही देखते क्षेत्र में अराजकता फैल गई। दंगाइयों ने जगह-जगह आगजनी करते हुए डबल-डेकर बस को फूंक दिया, निजी-सार्वजनिक संपत्ति पर पत्थर बरसाए और पुलिस अधिकारियों पर हमला बोलकर उनके वाहनों को पलट दिया। इस संबंध में सोशल मीडिया पर कई वीडियो वायरल है। हेयरहिल्स की आबादी करीब 31 हजार है, जिसमें 42 प्रतिशत हिस्सेदारी मुसलमानों की है, तो ईसाई जनसंख्या 37 प्रतिशत है।
    दरअसल, लीड्स दंगा अपने भीतर दो समस्याओं को समेटे हुए हैं। इसमें पहला सकंट-पश्चिमी और पूर्वी दुनिया के बीच सांस्कृतिक भिन्नता से जुड़ा है। किसी भी देश के नियम-कानूनों में उसकी संस्कृति की झलक दिखती है। अमेरिका और यूरोपीय देश पूर्वाग्रह-गफलत के शिकार है कि उनकी संस्कृति-परंपरा, जीवनशैली और तौर-तरीके ही बाकी दुनिया के लिए आदर्श है। जबकि सच्चाई क्या है, यह अमेरिका में 13 करोड़ व्यस्कों के अकेलेपन का शिकार होने, अभिभावक-बच्चे एक-दूसरे के साथ रहना पसंद नहीं करने, अधिक तलाक दर होने और अमेरिकी सरकार द्वारा अपने कुल बजट का 40 प्रतिशत से अधिक हिस्सा बुजुर्ग नागरिकों की देखभाल पर खर्च करने की मजबूरी से स्पष्ट है। इसकी तुलना में भारतीय उपमहाद्वीप में पारिवारिक-सामाजिक मूल्य अब भी बहुत मजबूत है, जिसे तोड़ने के कुटिल प्रयास दशकों से किए जा रहे है।
    ब्रिटेन के साथ जर्मनी, नॉर्वे सहित कई पश्चिमी देशों में बच्चों के पालन-पोषण को लेकर सख्त नियम हैं। बाल-कल्याण से जुड़ी संस्थाएं ऐसे परिवारों की तलाश में रहती हैं, जिनके बच्चों को लेकर ‘चाइल्ड प्रोटेक्शन’ से जुड़े नियमों के तहत कार्रवाई हो सके। इनमें अभिभावकों द्वारा बच्चे को थप्पड़ मारना या उनके सामने हिंसा करना ही नहीं, बल्कि उन्हें डांटना, हाथ से खाना खिलाना और यहां तक कि उन्हें अपने साथ एक ही बिस्तर पर सुलाना तक भी अपराध की श्रेणी में आता है। इस प्रक्रिया में सुरक्षा का हवाला देकर ‘वेलफेयर कोर्ट’ बच्चे को उसके मां-बाप से अलग करके स्थानीय परिवारों को सौंप देते हैं, जिन्हें ‘फोस्टर पैरेंट्स’ कहा जाता है और कुछ देशों में इन्हें दूसरों के बच्चे संभालने के बदले मोटी रकम दी जाती है।
    चूंकि मूल यूरोपीय निवासी अपने-अपने कानून-संस्कृति के हिसाब से ढले होते है, इसलिए बाल कल्याण संस्था उनके बजाय प्रवासी परिवारों को निशाना बनाते है। इसका दंश विदेशों में बसे भारतीय मूल के कई परिवार भी झेल रहे है। इस पर बीते साल मार्च में अभिनेत्री रानी मुखर्जी की ‘मिसेज चटर्जी वर्सेज नॉर्वे’ हिंदी फिल्म आई थी। यह फिल्म भारतीय महिला सागरिका चक्रवर्ती की आपबीती पर आधारित है, जिन्होंने अपने बच्चे को वापस पाने के लिए नॉर्वे सरकार से लंबा न्यायिक संघर्ष किया।
    प्रवासी भारतीयों से जुड़े ऐसे ढेरों उदाहरणों में से एक चर्चित मामला जर्मनी से भी सामने आया था। इसमें 23 सितंबर 2021 को सात महीने की अरिहा शाह को उसके माता-पिता से तब अलग कर दिया गया था, जब वे अपनी बेटी को ‘आकस्मिक चोट’ का उपचार कराने अस्पताल ले गए थे। तब चिकित्सक ने ‘चाइल्ड केयर सर्विस’ को फोन करके बुलाया और बच्ची को उन्हें सौंप दिया। अरिहा अब तीन वर्ष से अधिक की हो गई है और अब भी जर्मनी के युवा कल्याण कार्यालय (जुगेंडमट) के संरक्षण में है। उसकी वापसी हेतु अरिहा का परिवार भारत सरकार के समर्थन से न्यायिक और कूटनीतिक मार्ग अपना रहे है। इसी वर्ष 12 मार्च को दिल्ली में एक प्रतिनिधिमंडल ने अरिहा की ‘हृदय-विदारक’ स्थिति को लेकर जर्मनी के राजदूत फिलिप एकरमैन से भेंट भी की थी।
    इस पृष्ठभूमि में हेयरहिल्स में बाल कल्याण एजेंसी के खिलाफ खानाबदोश रोमा समुदाय और उनके समर्थन में पाकिस्तानी-बांग्लादेशी मुस्लिमों द्वारा मचाया उत्पात क्या दर्शाता है? अक्सर, मुस्लिम समाज का एक वर्ग, विशेषकर उस देश में जहां वे अल्पसंख्यक होते है- किसी भी मामले में असहमति या विरोध जताने के लिए हिंसा का सहारा लेता है। भले ही इंग्लैंड-वेल्स की कुल आबादी में मुस्लिम 6.5 प्रतिशत है, परंतु वहां जेलों में बंद कुल कैदियों में उनकी हिस्सेदारी 17 प्रतिशत से अधिक है। लीड्स घटनाक्रम से दो साल पहले ब्रिटेन के लेस्टर-बर्मिंघम में भी हिंदुओं को चिन्हित करके उनके घरों-मंदिरों पर योजनाबद्ध हमला हुआ था। स्वीडन, फ्रांस, जर्मनी आदि यूरोपीय देश भी हालिया वर्षों में इसी प्रकार के मजहबी दंगों का शिकार हो चुके हैं।
    यह दिलचस्प है कि जो राष्ट्र घोषित रूप से इस्लामी है या शरीया द्वारा संचालित है, वहां भी मुसलमानों का अपने सह-बंधुओं के साथ मजहब के नाम पर हिंसक टकराव है। यूरोप में अधिकांश मुसलमान प्रवासी मूल के है, जिनका संबंध उन्हीं गृहयुद्ध से जूझते या युद्धग्रस्त मध्यपूर्वी इस्लामी देशों से है। इस संकट की बड़ी वजह एकेश्वरवादी मुस्लिम समाज में प्रचलित मध्ययुगीन अवधारणा (काफिर-कुफ्र-शिर्क सहित) और सर्वमान्य जीवनमूल्यों (सह-अस्तित्व सहित) के बीच टकराव है।
    किसी भी सभ्य समाज में असहमति का स्थान होता है, हिंसा का नहीं। इसलिए तमाम पूजा-पद्धतियों को चाहिए कि वे अपनी सड़ी-गली अवधारणाओं को परिमार्जित करके उसे शाश्वत सह-अस्तित्व की भावना से युक्त बनाए। आखिर नाइत्तिफाकी की सूरत में इस्लामी अनुयायियों का एक वर्ग, हिंसा का ही रास्ता क्यों अपनाता है, इस पर आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है।

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