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- रघु ठाकुर
भले ही संविधान में यह प्रावधान किया गया हो कि संसद के दो सत्रों के मध्य 6 माह से अधिक का समय नहीं होगा। यानी 06 माह में एक बार संसद का सत्र बुलाना संवैधानिक अनिवार्यता है, इसलिये संसद के सत्र आमंत्रित किये जाते हैं। परन्तु क्या इन संसद के सत्रों का प्रयोग समाज के लिये कुछ उपयोगी हो पा रहा है? कई बार तो ऐसा लगता है कि सत्ता और प्रतिपक्ष के बीच में अलिखित समझौता या समझ विकसित हो गई कि सामान्य से सवाल को लेकर संसद में हंगामा हो, बहिष्कार हो, और बहिष्कार में ही संसद समाप्त हो जाये। सत्ता पक्ष के लिये जो प्रस्ताव पारित कराना अपरिहार्य है। उन्हें वह पारित कर ले और प्रतिपक्ष बहिष्कार, धरना आदि कर अपने कर्तव्य की इति श्री कर ले।
बाबा साहब अम्बेडकर का विश्वास तर्क में था। उन्होंने संविधान सभा के ड्राफ्टिंग समिति के सभापति के रूप में जो भूमिका अदा की वह अनुकरणीय है और इसी प्रकार संसद सदस्य रहते हुये भी उन्होंने संसद के मंच का प्रयोग तार्किक बहस के लिये किया है। जब संविधान सभा में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के ऊपर बहस हो रही थी तो वह बहस पठनीय और लोकतांत्रिक परंपराओं व मूल्यों के लिये अनुकरणीय है। स्व. शिब्बन लाल सक्सेना जो कांग्रेस समाजवादी थे ने चुनाव आयुक्त को नियुक्त करने की प्रस्तावित प्रक्रिया और दलीय चुनाव आयुक्तों के नियुक्ति के खतरों के बारे में कहा तथा उनका समर्थन स्व. हृदय नाथ कुंजुरू ने किया तो इसका उत्तर देते हुये बाबा साहब ने स्व. शिब्बन लाल सक्सेना के तर्काें का समर्थन करते हुये चुनाव आयुक्त को हटाने की प्रक्रिया को सर्वाेच्च न्यायालय के जज के समान बताया कि जिस प्रकार सर्वाेच्च न्यायालय के न्यायाधीश को संसद में महाभियोग के द्वारा ही हटाया जा सकता है वही सुरक्षा कवच चुनाव आयुक्त को भी है जिससे वह निष्पक्ष आचरण कर सकते हैं।
इस पर स्व. शिब्बन लाल सक्सेना का तर्क था कि हटाने के भय से सुरक्षा योग्य व्यक्ति को या निष्पक्ष व्यक्ति को नियुक्त करने का माध्यम नहीं होता। अगर कोई सरकार अपने बहुमत के आधार पर किसी अयोग्य व्यक्ति को (उन्होंने तो मूर्ख शब्द का प्रयोग किया था) नियुक्त कर देगी तो सुरक्षा भी अयोग्यों को मिल जायेगी। यानी अयोग्य व्यक्ति भी नहीं हट पायेगा।
जाहिर है कि यह नाम शासन की सिफारिश पर ही होंगे और संसद इस पर दो तिहाई बहुमत से सहमति दे तभी नियुक्ति की जाए। स्व. शिब्बन लाल जी ने तो सामान्य बहुमत को भी प्रस्तावित नहीं किया था क्योंकि उनका कहना था कि जिनकी सरकार होगी वह सामान्य बहुमत से मुहर लगा देगी। इसलिये दो तिहाई बहुमत से संसद से स्वीकृति हो या मनोनयन हो। उन्होंने यह भी कहा कि इससे सरकारों के ऊपर अन्य दलों की सहमति की लाचारी होगी और एक बेहतर प्रस्ताव सामने आयेगा।
बाबा साहब ने उनके इस तर्क को स्वीकार किया और कहा कि आपकी बात सही है। यद्यपि संविधान सभा ने उस समय प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। बहस, तर्क, सत्ता और विपक्ष के लोकतांत्रिक व्यवहार की यह बहस आदर्श उदाहरण है। परन्तु आज कल प्रतिपक्ष कोई बहस नहीं कर रहा। यहां तक कि जो तर्क या जुमले बाहर के मंचों पर करते हैं वह भी संसद की चर्चा में नहीं लाते। बिहार विधानसभा ने तो और भी कमाल किया है। वहां भा.ज.पा. प्रतिपक्ष में है और जनगणना के सवाल को लेकर कुछ आपत्तियां दर्ज कराते हुये उसने पहले बहिष्कार किया फिर बहिष्कार को स्वतः त्यागकर वापिस विधानसभा में आये और वहां हनुमान चालीसा का पाठ शुरू कर दिया। व्यक्ति की किसी भी ईश्वर में या देवी देवताओं में या महापुरुषों में श्रद्धा हो सकती है और यह उसका अपना अधिकार है परन्तु क्या विधानसभा का मंच पूजा पाठ के लिये है? इतना ही नहीं चलती हुई विधानसभा के बीच में भा.ज.पा. के विधायक बेल में बैठ गये और उन्होंने अपना समानात्तर सत्र शुरू कर दिया। यह क्या सम्पूर्ण विधानसभा को और लोकतंत्र को हास्यापद बनाना नहीं है? यह घटना 17 मार्च 2023 की है।