उमेश चतुर्वेदी
नागरिकता संशोधन कानून को लेकर एक बार फिर बवाल होता नजर आ रहा है…पश्चिम बंगाल की एक सभा में केंद्रीय राज्यमंत्री शांतनु ठाकुर ने नागरिकता संशोधन कानून को लागू करने का दावा कर दिया है। उनका कहना है कि एक हफ्ते में इसे लागू कर दिया जाएगा। चूंकि कुछ ही महीनों बाद लोकसभा का चुनाव होना है, इसलिए प्रेक्षकों के एक समूह को लग रहा है कि केंद्र सरकार ध्रुवीकरण के लक्ष्य को हासिल करने के लिए जानबूझकर इस कानून को लागू करने जा रही है। प्रेक्षकों को लगता है कि इस कानून को लेकर पहले से ही सशंकित मुस्लिम समुदाय एक बार फिर सड़कों पर उतरेगा। वह गुस्सा दिखाएगा तो उसके जवाब के तौर पर बहुसंख्यक मानस भी गोलबंद होगा। जिसका फायदा निश्चित तौर पर भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को मिलेगा।
प्रेक्षकों की सोच किंचित सही हो सकती है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इसी बिनाह पर संसद से पारित किसी कानून को लागू करने से रोका जाना चाहिए? निश्चित तौर पर इस सवाल का जवाब ना में है। वैसे यह कानून साल 2014 से पहले तक अफगानिस्तान, बर्मा, पाकिस्तान, बांग्लादेश से आए हिंदुओँ, बौद्धों, सिखों को नागरिकता देने का प्रावधान करता है। नागरिकता संशोधन कानून बुनियादी रूप में 1955 में पास हुआ था। इसके तहत बंटवारे के बाद भारत आए लोगों को नागरिक अधिकार देने का प्रावधान किया गया था। इस कानून में पहली बार संशोधन वाजपेयी सरकार के दौरान साल 2003 में हुआ था। इसके बावजूद पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, बर्मा या म्यांमार से आए हिंदू, सिख, ईसाई, जैन और बौद्ध शरणार्थी किस हाल में है, इसे देखना-समझना हो तो हमें राजस्थान के सीमाई इलाके बीकानेर, जोधपुर या जैसलमेर के शरणार्थी कैंपों और दिल्ली के नजफगढ़ के पास स्थित कैंपों का दौरा करना पड़ेगा। यहां रह रहे लोगों को ना तो शैक्षिक सुविधाएं मिल पाती हैं, ना उन्हें नियमित रोजगार मिल पाता है और ना ही दूसरी सरकारी सहूलियतें। क्योंकि ये भारत के वैध नागरिक नहीं हैं, इसलिए इनके पास आज के दौर के लिए जरूरी आधार कार्ड, पैन कार्ड आदि नहीं है, वोटर सूची में नाम आदि नहीं है। जमीन खरीद नहीं सकते। दरअसल यह कानून ऐसे ही लोगों के लिए आया था।
लेकिन चार साल पहले 2019 के दिसंबर में जब इस कानून को संसद ने मंजूरी दी थी, तो इसे एक तरह से मुस्लिम विरोधी बताने की शुरूआत हुई। मुस्लिम समुदाय में समाज और राजनीति के कतिपय तत्वों ने जानबूझकर यह संदेश देने की कोशिश की, कि यह कानून मुस्लिम विरोधी है। इसके बाद ही इस कानून के खिलाफ देश का तकरीबन समूचा मुस्लिम बहुल इलाका खड़ा हो गया। इसे वामपंथी वैचारिकी से ओतप्रोत राजनीतिक ताकतों ने खुला समर्थन दिया..इसे संयोग कहें कि प्रयोग कि यह कानून 11 दिसंबर 2019, दिन बुधवार को पारित हुआ और इसके विरोध में धरने और प्रदर्शन इसके ठीक तीन दिनों बाद यानी 14 दिसंबर से शुरू हुए। देखते ही देखते दिल्ली का शाहीन बाग इसके देशव्यापी विरोध का केंद्र बिंदु बन गया। इसके बाद तो शहर-दर-शहर विरोध प्रदर्शन शुरू हुए। इसी के विरोध प्रदर्शन में दिल्ली में दंगे हुए या कराए गए।
दरअसल मुसलमानों को बरगलाने की वजह बना है, इसी कानून में 2003 में हुआ संशोधन, जिसके तहत विशेषकर उत्तरपूर्वी राज्यों मसलन असम आदि में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बनाने की बात है। इसके तहत एक खास अवधि के बाद सीमा पार से आए लोगों की पहचान की कोशिश की जानी थी। बड़ी बात यह है कि नागरिकता संशोधन कानून बुनियादी रूप से भारतीय मुसलमानों के खिलाफ नहीं है। इस कानून की आलोचना के संदर्भ में उठने वाले तर्कों को भी देखा जाना चाहिए। चूंकि इस कानून में चूंकि मुसलमानों का जिक्र नहीं है, इसीलिए तर्क दिया जाता है कि यह कानून भेदभावपूर्ण है। इसी आधार पर इस पर सेकुलरिज्म के उल्लंघन का भी आरोप लगता है। इस कानून की आलोचना की एक वजह यह भी है नागरिकता रजिस्टर एक होगा तो मुसलमानों के बहिष्कार हो सकता है। इससे संविधान में निहित समानता और गैर भेदभाव के मूल्यों को चुनौती मिलती है। आरोप यह भी लगाया जाता है कि यह कानून लागू होने के बाद राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में कानून की जटिलता की वजह से बेगुनाहों को अपनी नागरिकता साबित करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है, नतीजतन अन्यापूर्ण परिणाम भी देखने को मिल सकते हैं।
वैसे अल्पसंख्यक विशेषकर मुस्लिम समुदाय की राजनीति करने वाले दलों और उनकी अगुआई करने वाली सामाजिक संस्थाओं ने जिस तरह के विरोध के सुर को तेज करना शुरू किया है, उससे लगता है कि उनकी कोशिश एक बार फिर 2019 को ही दोहराने की है। लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि चार साल के लंबे अंतराल में समाज के हर तबके को इतनी जानकारी तो हो चुकी है कि यह कानून बुनियादी रूप से क्या है और उसका बुनियादी लक्ष्य क्या है? लोग यह समझ चुके होंगे कि यह कानून भेदभाव नहीं करता, बल्कि पहले से भेदभाव भुगत रहे अति अल्पसंख्यक समुदायों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश करता है। अगर ऐसा नहीं हुआ है तो लोगों को इस नजरिये से समझाने की कोशिश होनी चाहिए। शायद सरकार का मकसद भी यही है। इस प्रक्रिया के जरिए कुछ राजनीतिक लक्ष्य भी हासिल किए जाना संभव है। लेकिन ध्यान रखना होगा कि विरोध की भी अपनी राजनीति होती है।
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