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भोजशाला में कब लौटेगी वासंती बहार?

डॉ. अर्पण जैन
एक तरफ मौसम की अंगड़ाई है, एक तरफ वृक्षों में बहार का अवसर और ऐसे समय में जब वसंत का उत्सव जैसे ही नजदीक आता है, यकीन जानिए मध्य प्रदेश के धार जिले के निवासी यहां तक कि आसपास के लोग भी इस बात से फिर चिंतित हो जाते हैं कि आखिर कब घर वापसी होगी मां वाग्देवी की! भोजशाला सरस्वती मंदिर मध्य प्रदेश के धार जिले में स्थित है। भोजशाला ऐसा धर्मस्थल है, जिसे आक्रांताओं ने नष्ट कर अथवा उसी के हिस्सों का प्रयोग कर उसे मस्िजद में बदल दिया। भोजशाला भी उनमें से एक है, जहां वर्तमान समय में बसंत पंचमी का उत्सव भी मनाया जाता है और शुक्रवार की नमाज भी पढ़ी जाती है और यह सब हुआ इस्लामिक कट्टरपंथी अलाउद्दीन खिलजी के द्वारा मंदिर को नष्ट किए जाने के बाद।
इतिहास में भोजशाला का जिक्र गहरा है। भारत की शासन प्रणाली के प्रांजल अध्याय के रूप में पहचाने जाने वाले परमार राजवंश के शासक राजा भोज ने धार में एक महाविद्यालय की स्थापना की थी, जिसे बाद में भोजशाला के रूप में जाना जाने लगा। कहा जाता है कि राजा भोज मां शारदे के महान उपासक थे और यही कारण भी था कि उनकी रुचि शिक्षा एवं साहित्य में बहुत ज्यादा थी। राजा भोज ने ही सन 1034 में भोजशाला के रूप में एक भव्य पाठशाला का निर्माण किया और यहां माता सरस्वती की एक प्रतिमा स्थापित की। इसे तब सरस्वती सदन कहा था। भोजशाला को माता सरस्वती का प्राकट्य स्थान भी माना जाता है। इतिहास में दर्ज भोजशाला मंदिर से प्राप्त कई शिलालेख 11वीं से 13वीं शताब्दी के हैं। इन शिलालेखों में संस्कृत में व्याकरण के विषय में वर्णन किया गया है। इसके अलावा कुछ शिलालेखों में राजा भोज के बाद शासन संभालने वाले राजाओं की स्तुति की गई है। कुछ ऐसे भी शिलालेख हैं जिनमें शास्त्रीय संस्कृत में नाटकीय रचनाएं उत्कीर्णित हैं। माता सरस्वती के इस मंदिर को कवि मदन ने अपनी रचनाओं में वर्णित किया था। यहां प्राप्त हुई माता सरस्वती की मूल प्रतिमा वर्तमान में लन्दन के संग्रहालय में है। एक समय में मां सरस्वती का मंदिर होने के साथ भोजशाला भारत के सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में से एक था। इसके आलावा यह स्थान विश्व का प्रथम संस्कृत अध्ययन केंद्र भी था। इस विश्वविद्यालय में देश-विदेश के हजारों विद्वान आध्यात्म, राजनीति, आयुर्वेद, व्याकरण, ज्योतिष, कला, नाट्य, संगीत, योग, दर्शन आदि विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आते थे। इसके अतिरिक्त इस शिक्षा केंद्र में वायुयान, जलयान तथा कई अन्य स्वचालित (ऑटोमैटिक) यंत्रों के विषय में भी अध्ययन किया जाता था।
ऐतिहासिक तथ्यों के मुताबिक सन 1305 में मुस्लिम आक्रांता अलाउद्दीन खिलजी ने भोजशाला पर आक्रमण किया था और उसे नष्ट कर दिया था। बाद में सन 1401 में दिलावर खां ने भोजशाला के एक भाग में मस्िजद का निर्माण करा दिया। अंततः सन 1514 में महमूद शाह खिलजी ने भोजशाला के शेष बचे हिस्से पर मस्िजद का निर्माण करा दिया। समय के साथ यहां विवाद बढ़ता गया और अंग्रेजी हुकूमत के दौरान भोजशाला को संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया गया।
एक रिपोर्ट के अनुसार सन 1305 में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय भोजशाला के शिक्षकों और विद्यार्थियों ने भी खिलजी की इस्लामिक सेना का विरोध किया था। खिलजी द्वारा लगभग 1,200 छात्र-शिक्षकों को बंदी बनाकर उनसे इस्लाम कुबूल करने के लिए कहा गया लेकिन इन सभी ने इस्लाम स्वीकार करने से मना कर दिया।
इसके बाद इन विद्वानों की हत्या कर दी गई थी और उनके शव को भोजशाला के ही विशाल हवन कुंड में फेंक दिया गया था। 16वीं शताब्दी में दिलावर खां गौरी ने मां सरस्वती के मंदिर में बने देवस्थलों को खंडित कर, कमाल मौलाना का अवैध मकबरा बना दिया। कहा जाता है कि भोजशाला में कमाल मौलाना की मजार है जबकि इतिहास यह भी कहता है कि कमाल मौलाना की मृत्यु अहमदाबाद में हुई थी, जहां उनकी मजार स्थित है। फिर भी भोजशाला में मजार होने का दावा तथ्यहीन नजर आता है। इस तरह एक और हिन्दू मंदिर कट्टरपंथ की भेंट चढ़ गया। भोजशाला को लेकर सन 1952 में महाराजा भोज स्मृति बसंतोत्सव समिति ने मुक्ति के प्रयास प्रारंभ किए थे। सन 1961 में पुरातत्ववेत्ता व इतिहासकार पद्म श्री डॉ.वाकणकर ने मां वाग्देवी की प्रतिमा का लंदन संग्रहालय में होना प्रमाणित किया। सन 1970 के बाद मंदिर परिसर में नमाज भी प्रारंभ हो गई।
सन 1992 बसंत पंचमी को साध्वी ऋ तुम्भरा जी द्वारा सरस्वती मंदिर भोजशाला में हनुमान चालीसा का आह्वान किया गया, तब अगले मंगलवार से सत्याग्रह प्रारंभ हुआ। सन 2000 में ‘घर-घर देवालय’ स्थापना के द्वारा धर्म जागरण का कार्य भी शुरू हुआ। इसके साथ सन 2003 में लाखों श्रद्धालुओं ने मां वाग्देवी का पूजन भोजशाला में किया। 6 फरवरी 2003 बसंत पंचमी और शुक्रवार एक ही दिन था, उस दिन भोजशाला मुक्ति के लिए एक लाख से अधिक धर्मरक्षकों का संगम एवं संकल्प ही हुआ। 18-19 फरवरी 2003 को भोजशाला आंदोलन में तीन कार्यकर्ताओं का बलिदान हुआ और 1400 कार्यकर्ताओं पर प्रतिबंधात्मक कार्यवाही हुई। 08 अप्रैल 2003 को 650 वर्ष बाद हिन्दूओं को दर्शन एवं पूजन का अधिकार प्राप्त हुआ। सन 2006 की बंसत पंचमी, शुक्रवार को पहली बार दिन भर गर्भगृह में हवन पूजन किया गया। संगठित हिन्दू समाज के पराक्रम के कारण सन 2013 में भोजशाला परिसर के बाहर नमाज हुई। 2016 में सूर्योदय के साथ ही गर्भ गृह में सरस्वती माता के तेल चित्र की पूजा-स्थापना के साथ यज्ञ प्रारंभ हुआ। संघर्ष, संगठन और पराक्रम के बल पर वर्ष में 52 दिन पूजन का अधिकार प्राप्त हुआ है। 750 वर्ष से चले रहे संघर्ष की पूर्णाहुति लंदन में रखी वाग्देवी सरस्वती की प्रतिमा की सरस्वती मंदिर भोजशाला में पुनर्स्थापना के साथ होगी।
बसंत पंचमी के दिन समस्त हिन्दू समाजजन यहां माता सरस्वती की उपासना करने के लिए आते हैं, लेकिन यह पूजा-पाठ भी कानून के दायरे में रहकर और भीषण सुरक्षा-व्यवस्था के बीच संपन्न होती है। सन 2013 में बसंत पंचमी, शुक्रवार के दिन ही थी, जिसके कारण भोजशाला में सांप्रदायिक तनाव की स्थिति निर्मित हो गई थी और पुलिस को यहां कार्रवाई करनी पड़ी थी। उसी दौरान हिन्दूवादी संघर्षक, भोजशाला मुक्ति मोर्चा के संयोजक नवलकिशोर शर्मा पुलिसिया बर्बरता के शिकार हुए थे। इसके अतिरिक्त सैंकड़ों संघर्षों की गवाह रही भोजशाला में आज तक मां वाग्देवी की मूल प्रतिमा स्थापित नहीं हो पाई है। विगत बीस वर्षों से तो मध्य प्रदेश में भी भाजपा का शासन है और केंद्र में भी 10 वर्षों से भाजपा ही बैठी है, ऐसे दौर में जिस तरह पाच सौ साल अयोध्या के संघर्ष को मुक्त कर राघवेंद्र की घर वापसी हुई है, ज्ञानवापी में पूजा का अधिकार मिला, उसी तरह भोजशाला के मसले पर भी केंद्र सरकार से अपेक्षा है कि हस्तक्षेप कर भोजशाला में वाग्देवी की प्रतिमा को स्थापित करवा कर हिन्दू समाज की पीड़ा का हरण करें।

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