Home » समान नागरिक संिहता के नाम पर आ जाए ‘हिंदू सिविल कोड’ भी तो क्या बुराई है?

समान नागरिक संिहता के नाम पर आ जाए ‘हिंदू सिविल कोड’ भी तो क्या बुराई है?

  • डॉ. मयंक चतुर्वेदी
    ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी और इनके जैसे अनेकों ने समान नागरिकता संहिता (यूसीसी) को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर इस बार कुछ गहरा निशाना साधा है। वे कह रहे हैं कि यूसीसी के नाम पर प्रधानमंत्री मोदी ‘हिंदू सिविल कोड’ लाना चाहते हैं, जिसका हम पुरजोर विरोध करते हैं। एआईएमआईएम के इस नेता ने प्रधानमंत्री मोदी को यह कहकर भी घेरने का प्रयास किया है, मेरे देश के प्रधानमंत्री को कोई जाकर समझाए कि समानता और अनेकता अलग-अलग चीज है। ‘एक घर में दो कानून कैसे चलेंगे? संविधान में समवर्ती सूची क्या है… संघीय सूची क्या है… राज्य सूची क्या है… प्रधानमंत्री आप देख लेते तो मालूम होता।’
    ओवैसी साहब का आरोप है कि ”देश अब तक एकता और विविधता के नाम पर मजबूत रहा, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश को ‘दो मिनट के नूडल्स’ की तरह चलाना चाहते हैं। उन्हें समझना चाहिए यह 133 करोड़ की आबादी का देश उसे ऐसे नहीं चला सकते आप।” वस्‍तुत: यहां ऊपर ओवैसी के कहे शब्दों में होशियारी देखिए आप! अपनी सुविधा के लिए वे संविधान के उसी भाग का उल्लेख करते हैं जिसे बोलने से उन्हें लाभ होता हो। वे बिल्कुल भी यह जिक्र नहीं करना चाहते कि भारतीय संविधान में समय-समय पर आवश्‍यकतानुसार 105 संशोधन भी हुए हैं।
    फिर जो इस यूसीसी का विरोध कर रहे हैं उन्हें यह पता ही होना चाहिए कि 1951 में डॉ. आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल को संसद में पेश किया था। उस समय इसका विरोध जरूर हुआ किंतु देश के बहुसंख्‍यक वर्ग को यह समझाने में अधिक वक्‍त नहीं लगा था कि यह उस आधी जनसंख्‍या के हित में है जोकि भारतीय सभ्‍यता और संस्‍कृति में इस जगत की कारण और आद्या है। आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल लेकर कहा भी था कि ‘मुझे भारतीय संविधान के निर्माण से अधिक दिलचस्पी और खुशी हिंदू कोड बिल पास कराने में है।’ बाद में देश के पहले लोकसभा चुनाव के बाद पं. नेहरू ने हिंदू कोड बिल को कई हिस्सों में 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट के साथ प्रस्तुत किया। जिसमें कि तलाक को कानूनी दर्जा, अलग-अलग जाति स्त्री-पुरुष को परस्पर विवाह का अधिकार और एक बार में एक से ज्यादा शादी को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था।
    हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम और हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम 1956 में लागू हुए। ये सभी कानून महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा देने के लिए लाए गये थे। पहली बार महिलाओं को संपत्ति में अधिकार दिया गया और लड़कियों को गोद लेने पर जोर दिया गया। इसका चहुंओर स्वागत हुआ। प्रत्येक हिन्दू ने ही नहीं बल्कि उन सभी ने जोकि अन्‍य भारत से जन्‍में मत, पंथ पर यह लागू हुआ, उन सभी ने भी इसको स्‍वागत के साथ स्‍वीकारा। बहुविवाह अब बीते जमाने की बात हो गई। स्‍त्री केवल साहित्य एवं संस्कृति में ही नहीं व्यावहारिक धरातल पर कानूनी तौर से समान अधिकारिणी और प्रत्येक हिन्दू पुरुष के जीवन में अर्धनारीश्‍वर हो गई। आप देखिए, इतिहास में इस समय (1955 एवं बाद) तक कोई शिकायत कर्ता आपको ‘हिन्‍दू कोड बिल’ का नहीं मिलेगा।
    इतिहास इसके साथ इस साक्ष्‍य को भी हमारे समक्ष रखता है कि डॉ. भीमराव अम्बेडकर स्‍वयं समान नागरिक संहिता के बहुत बड़े समर्थक थे। वे चाहते थे कि देश में एक समान कानून हों, मत, पंथ, मजहब के आधार पर नहीं। यह सभी के लिए एक समान होने चाहिए न कि कोई चार शादियां करें और कोई सिर्फ एक। या विवाह की उम्र किसी के लिए 18 वर्ष हो और कोई कहे हमारे यहां तो 16 साल मान्य है, नहीं-नहीं साहब, इससे पहले भी कर सकते हैं । किसी भी सभ्य समाज में इद्दत और हलाला को कैसे स्‍वीकार्य किया जा सकता है? पति की मौत होने और बेटा न होने की सूरत में मुस्लिम महिला को संपत्ति का पूरा हिस्सा क्यों नहीं मिलना चाहिए? सिर्फ इसलिए कि वह मुसलमान है और उसके लिए कानून अलग होंगे? देश के एक नागरिक के रूप में यह विचार करें कि यह कहां तक ठीक है? क्या ऐसी स्िथति में हम उस महिला के साथ जो खुद आश्रित अवस्था में आ गई है, हम न्‍याय करते हैं? क्‍या देश में तलाक के एक जैसे आधार नहीं होने चाहिए? जो आधार पुरुष के लिए है, वही स्त्री के लिए भी क्यों नहीं होने चाहिए? एक हिन्दू महिला या जिन पर भी ‘हिन्दू सिविल कोड’ लागू होता है उनकी तरह ही प्रत्येक मुस्लिम महिला या भारत की प्रत्येक नागरिक महिला का यह हक है कि उसे भी गुजारा भत्ता का अधिकार मिले। सभी को अडॉप्शन का एक समान अधिकार प्राप्त हो। ऐसे ही सभी नागरिक संहिता से जुड़े अधिकार प्रत्येक भारत के नागरिक को एक समान मिलना ही चाहिए।
    संविधान की हम जब प्रस्तावना पढ़ते हैं तो उसके शुरू में ही लिखा गया है कि ‘हम भारत के लोग’….यह जो हम भारत के लोग हैं उसमें यह कहीं नहीं है कि हे हिंदू, हे मुसलमान, हे ईसाई, हे सिख, हे पारसी, हे जैन, हे बौद्ध। यहां संबोधन है ‘हम भारत के लोग’ समान रूप में ‘हम सभी एक जन’ फिर ये जो ‘हम’ है भला! वह नागरिक संहिता के मामले में अलग-अलग कैसे हो सकता है?
    वस्‍तुत: संविधान सभा के वाद-विवाद के खंड सात में डॉ. आंबेडकर ने जो कहा उसे सभी समझें, ‘मैं व्यक्तिगत रूप से यह नहीं समझता कि धर्म, मजहब, पंथ या मत को इतना विशाल, विस्तृत अधिकार क्षेत्र क्यों दिया जाना चाहिए ताकि पूरे जीवन को कवर किया जा सके और विधायिका को उस क्षेत्र पर अतिक्रमण करने से रोका जा सके। आखिर हमें यह स्‍वाधीनता किस लिए मिल रही है ? हमें यह स्वतंत्रता अपनी सामाजिक व्यवस्था को सुधारने के लिए मिल रही है, जो असमानताओं से भरी है। यह हमारे मौलिक अधिकारों के साथ निरंतर टकराव करती रहती है। इसलिए, किसी के लिए भी यह कल्पना करना बिल्कुल असंभव है कि पर्सनल लॉ को राज्य के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा जाएगा।’

Swadesh Bhopal group of newspapers has its editions from Bhopal, Raipur, Bilaspur, Jabalpur and Sagar in madhya pradesh (India). Swadesh.in is news portal and web TV.

@2023 – All Right Reserved. Designed and Developed by Sortd