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समान नागरिक संहिता लागू करके उत्तराखंड देश में अग्रणी, अन्य राज्यों की राह आसान

प्रमोद भार्गव
उत्तराखंड राज्य सरकार ने समान नागरिक संहिता विधेयक राज्य विधानसभा में पारित करके देश में समानता का कानून बनाने के संदर्भ में इतिहास रचने का काम किया है। ध्वनिमत से अस्तित्व में आए इस कानून के साथ स्वतंत्र भारत में उत्तराखंड ऐसा पहला राज्य बन गया है, जिसने संविधान निर्माताओं द्वारा समान नागरिक संहिता के देखे गए स्वप्न को साकार करने का काम किया है। इस दिशा में गुजरात और असम में भी इसी प्रकार का कानून लाने की तैयारी हालांकि गोवा राज्य में समान नागरिक संहिता पुर्तगाली शासन के समय से ही लागू है। विधेयक पर बहस के समय सत्ता पक्ष भाजपा ने प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस पर खूब तल्ख कटाक्ष किए, लेकिन कांग्रेस पलटवार में आक्रामक होने की बजाय मौन साधे रही। अतएव लगता है कांग्रेस अब धर्मनिरपेक्षता के बहाने मुस्लिम परस्ती से छुटकारा पाने के रास्ते तलाश रही है। यह विधेयक राज्यपाल से अनुमोदन के बाद राष्ट्रपति के अनुमोदन के साथ ही कानून का रूप ले लेगा।
उच्च न्यायालय से सेवानिवृत्त न्यायाधीश रंजना देसाई की समीति ने इस विध्ोयक का प्रारूप आठ सौ पृष्ठों में तैयार किया है। चूंकि देसाई न्यायालयीन प्रक्रिया से लंबे समय तक प्रत्यक्ष अवगत रही हैं, इसलिए उन्हें ज्ञात रहा है कि कानून में असमानताओं के चलते लोगों को किस तरह से परेशान होना पड़ता है। अतएव अब उत्तराखंड में उन कानूनों को समाप्त कर दिया है, जो स्त्री-पुरुष में भेद के साथ संतान और संपत्ति में भी भेद के पर्याय रहे हैं। साफ है, व्यक्तिगत नागरिक अधिकार संबंधी मामलों से जुड़े ज्यादातर कानूनों में एकरूपता लाने का स्वागत योग्य प्रयास किए गए हैं। अब प्रत्येक धर्म के दंपत्ति को विवाह का पंजीकरण कराना अनिवार्य होगा। पंजीकरण नहीं होने पर सरकारी सुविधाओं के लाभ से वंचित होना पड़ेगा। कोई भी पति, पत्नी के जीवित रहते हुए दूसरा विवाह नहीं कर सकता है। सभी धर्मों में विवाह की न्यूनतम उम्र लड़कों के लिए 21 वर्ष और लड़कियों के लिए 18 वर्ष निर्धारित है।
वैवाहिक दंपत्ति में यदि कोई एक व्यक्ति बिना किसी दूसरे पक्ष की सहमति के मत परिवर्तन करता है तो दूसरे पक्ष को उससे तालाक लेने व गुजारा भत्ता लेने का पूरा अधिकार रहेगा। पति-पत्नी के संबंध विच्छेद या घरेलू झगड़े के समय पांच वर्ष तक का बच्चा माता के पास रहेगा। सभी धर्मों के पति और पत्नि को तालाक लेने का अब समान अधिकार प्राप्त हो गया है। तीन तलाक को केंद्र सरकार पहले ही समाप्त कर चुकी है। मुस्लिम समुदायों में प्रचलित हलाला और इद्दत पर रोक लगा दी गई है। मुस्लिम पर्सनल लाॅ के चलते ये कानून अस्तित्व में थे, जिन्हें अब खत्म तो कर ही दिया गया है, कानून का उल्लंघन करने पर सजा का भी प्रावधान किया गया है। सभी धर्म समुदायों में सभी वर्गों के लिए बेटे-बेटी को संपत्ति में समान अधिकार होगा।
बावजूद इस अच्छे कानून में एक कानून आंखों में खटकने वाला है। इस विधेयक की धारा सात अध्याय दो और धारा-381 में सह-जीवन (लिव-इन) के रिश्तों में रहने वाले युगलों को पंजीकरण कराना अनिवार्य कर दिया है। ऐसे में गैर-पंजीकृत युगलों पर सोशल पुलिसिंग का खतरा बढ़ सकता है ? वर्तमान समय आर्थिक युग का है। ऐसे में आजीविका के लिए युवक एवं युवतियों को अकेले रहना पड़ रहा है, जो जीवन में कठिनाई बढ़ाता है। नतीजतन संपर्क में आने के बाद कई जोड़े साथ रहने को मजबूर हो जाते हैं। यह एक व्यावहारिक मानसिकता है। हालांकि यह ठोस सच्चाई है कि लिव-इन रिश्तों के प्रचलन से महिलाओं पर अत्याचार और आक्रामण के मामले बढ़े हैं। साथ ही विवाह संस्था की सात जन्मों वाले गठबंधन और पवित्रता के मूल्य एक हद तक घटे भी हैं। ऐसे में पंजीकरण की बाध्यता करने से ऐसे युगल राहत में रहेंगे, जिन्हें परिजनों की साथ रहने की स्वीकृति नहीं मिलती है। लिहाजा पंजीकरण के चलते युगल को संतान होती है तो उसे लालन-पालन के साथ विरासत संबंधी कानूनी अधिकार भी मिल जाएंगे। अतएव अविवाहित मातृत्व से पैदा होने वाली संतान का भविष्य माता-पिता का नाम मिल जाने के कारण संरक्षित होगा।
संविधान राज्य को स्वतंत्र रूप से समान नागरिक कानून बनाने का अधिकार देता है। अतएव संविधान में दर्ज नीति-निर्देशक सिद्धांत यही अपेक्षा रखता है कि समान नागरिकता समूचे देश में लागू हों। जिससे देश में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए एक ही तरह का कानून वजूद में आ जाए, जो सभी धर्मों, संप्रदायों और जातियों पर लागू हो। आदिवासी और घूमंतू जातियां भी इसके दायरे में आएंगी। केंद्र में सत्तारूढ़ राजग सरकार से यह उम्मीद ज्यादा इसलिए है, क्योंकि यह मुद्दा भाजपा के बुनियादी मुद्दों में शामिल है। इसमें सबसे बड़ी चुनौतियां बहुधर्मों के व्यक्तिगत कानून और वे जातीय मान्यताएं हैं,जो विवाह, परिवार, उत्तराधिकार और गोद जैसे अधिकारों को दीर्घकाल से चली आ रही क्षेत्रीय, सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को कानूनी स्वरूप देती हैं। अदालत में जब पारिवारिक विवाद आते हैं तो अदालत को देखना पड़ता है कि पक्षकारों का धर्म कौनसा है ? और फिर उनके धार्मिक कानून के आधार पर विवाद का निराकरण करती है। इससे व्यक्ति का मानवीय पहलू तो प्रभावित होता ही है, अनुच्छेद 44 की भावना का भी अनादर होता है। दरअसल ब्रिटिशकालीन भारत-1772 में सभी धार्मिक समुदायों के लिए विवाह, तलाक और संपत्ति के उत्तराधिकार से जुड़े अलग-अलग कानून बने थे, जो आजादी के बाद भी अस्तित्व में बने हैं। हालांकि नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा तीन तलाक के खात्मे के बाद अब उत्तराखंड राज्य सरकार ने समान नागरिक कानून बनाकर अन्य राज्यों को यह संदेश दे दिया है कि वे भी अपने राज्य में समान नागरिक कानून बनाकर समानता के भेद को खत्म कर सकते हैं ?

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