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- चेतनादित्य आलोक
हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में आजादी से लेकर आज तक चुनी हुई सरकारें प्रायः सेना के हाथों की कठपुतलियां ही रही हैं। यही कारण है कि वहां न तो जनता की चुनी हुई सरकारें कभी स्वतंत्र फैसले लेने में सक्षम रहीं और न ही वहां के न्यायालयों की कार्यवाहियां सेना के प्रभावों और दवाबों से मुक्त रह पायी हैं। इसका सबसे बड़ा कारण पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ों का कमजोर होना है। प्रश्न है कि जब धार्मिक आधार पर भारत को तोड़कर इस्लामिक देश पाकिस्तान का निर्माण हुआ, तब क्या पाकिस्तान को अपना देश मानकर वहां घर-बार बसाने वाले लोगों को कभी लगा होगा कि एक दिन उनके मुल्क में लोगों के पेट भरना भी मुश्किल हो जायेगा… क्या वहां की जनता ने कभी सोचा होगा कि विदेशों में बसने वाले बेहद धनाढ्य सेनाध्यक्षों और शासकों वाला उनका देश एक दिन कंगाल होकर दर-दर की ठोकरें खाते फिरने के लिए मजबूर होगा… और क्या उन्होंने कभी सोचा होगा कि उनके देश में ‘प्रेम’ और ‘सद्भाव’ पर ही नहीं, बल्कि ‘न्याय’ पर भी कठोर पहरे लगाये जायेंगे, जिसके परिणामस्वरूप लोकतंत्र की जड़ें धीरे-धीरे सूखती चली जायेंगी। बहरहाल, पाकिस्तान का इतिहास देखें तो मालूम होता है कि ‘लोकतंत्र का पाकिस्तानी संस्करण’ वास्तव में ‘लोकतंत्र की एक दुर्भाग्य-कथा’ है। ऐसा कहना इसलिए जरूरी है, क्योंकि वास्तव में पाकिस्तान में लोकतंत्र को बार-बार कुचला जाता रहा है। लोकतंत्र को कमजोर करने के इस अभियान में हालांकि वहां की सरकारों का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है, किंतु इस कार्य में प्रमुख भूमिका तो पाकिस्तानी सेना की ही रही है।
उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान बनने के नौ वर्षों बाद तक वहां संविधान का निर्माण भी नहीं किया जा सका था, जबकि उन नौ वर्षों में वहां पर चार प्रधानमंत्री एवं चार गवर्नर जेनरल शासन की बागडोर संभाल चुके थे। यहां तक कि राष्ट्रपति का पद भी आजादी के नौवें वर्ष सन् 1956 में सृजित हुआ, जिसके बाद रिपब्लिकन पार्टी के नेता इस्कंदर मिर्जा पाकिस्तान के पहले राष्ट्रपति बने। राष्ट्रपति मिर्जा ने आर्मी चीफ के रूप में अयूब खान की नियुक्ति की, जो बाद में उनके ही शत्रु साबित हुए। पाकिस्तानी लोकतंत्र के काले इतिहास का यह पहला अध्याय बताता है कि महज दो वर्ष बाद ही 07 अक्तूबर 1958 को अयूब खान ने अपने ही बॉस राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा की सरकार को गिराकर देश भर में मार्शल लॉ लगा दिया था। यही नहीं, सन् 1956 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने हुसैन शहीद सुहरावर्दी ने पद संभालते ही हालांकि सेना को खुश करने के लिए वहां के राष्ट्रीय रेडियो पर भारत के विरूद्ध घोषणा कर दी थी कि वे पाकिस्तान में एक बडी सेना बनाकर भारत पर हमले करेंगे। इसके बावजूद उनका अपने ही आर्मी चीफ से मनमुटाव हो गया और मात्र 13 महीनों के बाद ही उन्हें जेनरल अयूब खान की सरकार की जब्ती का समर्थन नहीं करने के कारण जनवरी 1962 में ‘पाकिस्तान अधिनियम 1952’ के अंतर्गत राज्य विरोधी गतिविधियों के मनगढ़ंत आरोप में गिरफ्तार कर प्रधानमंत्री सुहरावर्दी को बिना मुकदमे के ही करांची सेंट्रल जेल में डाल दिया गया। दूसरी ओर जनता के बीच अपनी तानाशाही छवि को सुधारने के लिए अयूब खान ने राजनेता जुल्फीकार अली भुट्टो को पाकिस्तान का विदेश मंत्री बना दिया।