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सजीव संसदीय प्रसारण पर विचार का वक्त

  • उमेश चतुर्वेदी
    क्या वक्त आ गया है कि संसदीय कार्यवाही के लाइव (सजीव) टीवी प्रसारण पर विचार किया जाए? संसदीय लोकतंत्र की गरिमा को बचाए-बनाए रखने वाले तबके में इसकी मांग उठने लगी है। ऐसी सोच रखने वाले वर्ग का मानना है कि अगर ऐसा नहीं किया जाएगा तो संसद की गरिमा घटेगी। अपने आचरण के चलते सांसदों का एक वर्ग लोक इज्जत तो खो ही चुका है, लाइव प्रसारण के जरिए उनके मुखारबिंद से जो शब्द संसद की परिधि के अंदर झड़ रहे हैं, उससे स्थितियां उलझी हैं।
    इसे बिडबंना कहें या उलटबांसी, कि जिस ब्रिटेन के हम करीब दो सौ साल तक गुलाम रहे, हमारा संसदीय लोकतंत्र उसी ब्रिटिश शासन प्रणाली जैसा है। वैसे शासन की प्रणाली जो भी हो, अगर उसे एक बार अपना लिया गया तो उसकी उच्च परंपराएं, उसकी गरिमा और उसकी मर्यादा को भी शिद्दत से स्वीकार करना होगा। पूर्व उपप्रधानमंत्री देवीलाल कहा करते थे कि लोकतंत्र लोकलाज से चलता है। उसी अंदाज में कह सकते हैं कि महान परंपराओं और गरिमा को स्वीकार किए बिना कोई भी शासन सफल नहीं हो सकता। लोक का आदर उसे नहीं मिल सकता। और अगर लोक का भरोसा शासन प्रणाली से खत्म हो गया तो उस प्रणाली पर सवालिया निशानों की झड़ी लग जाती है। ब्रिटिश संसद में एक परंपरा है कि संसदीय कार्यवाही से हटाए गए शब्दों को ना तो कभी उद्धृत किया जा सकता है और न ही उसे रिपोर्ट किया जा सकता है। जाहिर है कि हटाए गए संसदीय शब्द वे होते हैं, जो अमर्यादित होते हैं, तथ्यहीन होते हैं और गरिमा के विरूद्ध होते हैं। जब तक टेलीविजन नहीं था, पत्रकारिता के रंगरूटों को संसदीय इम्बार्गो और कार्यवाही की रिपोर्टिंग के मायने गहराई से समझाए जाते थे। संसद या किसी संसदीय समिति के बयान की जानकारी होने के बावजूद उसे तब तक सार्वजनिक नहीं किया जा सकता था, जब तक की समय सीमा संसद या संसदीय समिति की ओर तय की गई होती थी। अखबारों के दफ्तरों में खबरें लिख ली गई होती थीं, उन्हें संपादित तक कर लिया गया होता था, तब आज की तरह वेबसाइटें नहीं होती थीं। अखबार में भी तभी छपता था, जब उसकी मियाद हो जाती थी। अखबारों के रिपोर्टर संसद की रिपोर्टिंग करते हुए सांसदों की उन बातों को भी सुनते ही थे, जिन्हें अमर्यादित और तथ्यहीन होने के चलते कार्यवाही से हटा दिया जाता था। लेकिन उनका उल्लेख वे अपनी रिपोर्टों में नहीं करते थे। इस पूरी प्रक्रिया का उद्देश्य था कि लोगों तक वही बातें पहुंचे, जो मर्यादित हों, जो तथ्यात्मक रूप से ठीक हों।
    लाइव प्रसारण के चलते अब जनता तक वे सारी बातें भी पहुंच रही हैं, जो तथ्यहीन हैं, जिन्हें बाद में संसदीय कार्यवाही से निकाल दिया जा रहा है। उदाहरण के लिए राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान विपक्ष के नेता राहुल गांधी के भाषण को रखा जा सकता है। उन्होंने अग्निवीर, फसलों पर एमएसपी आदि पर तथ्यहीन बातें कीं। चूंकि चर्चा का संसद टीवी पर लाइव प्रसारण चल रहा था, लिहाजा उन्हें उन सब लोगों ने देखा और सुना, जो उस समय संसद टीवी को सीधे या किसी अन्य समाचार चैनल के जरिए देख रहे होंगे। इसके बाद भले ही उनकी तथ्यहीन और संसदीय मर्यादाहीन बातों को कार्यवाही से हटा दिया गया हो। लेकिन जनता के बीच संदेश तो पहुंच ही गया। इसी तरह याद कीजिए, राष्ट्रपति के अभिभाषण पर जारी चर्चा के दौरान आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह के भाषण को। उन्हें पदेन सभापति उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कई बार टोका और फिर भी नहीं माने तो उनके भाषण के हिस्सों को एक्सपंज किया जाता रहा।
    यह कोई पहला मौका नहीं है, जब लाइव प्रसारण के दौरान सांसदों के ऐसे कई बयान और शब्द सुने गए। संसद में तो आए दिन अब ऐसे वाकये होने लगे हैं। दिलचस्प यह है कि जब सांसदों की बातों को जब रोका जाता है तो वे इसे अपने प्रति दुर्भावना बताने लगते हैं। आरोप लगाने लगते हैं कि उनका माइक बंद कर दिया गया। राहुल गांधी ने भी हटाए गए शब्दों को रखने की मांग रखी है।
    मौजूदा दौर विजुअल माध्यमों का है। ऐसे में हर सांसद चाहता है कि वह संसद में जो भी बोले, उसका प्रसारण हो। कम से कम उसके वोटरों के बीच यह सनद रहे कि वह भी दमदार है और अपने लोगों की बातें संसद में रखता है। यह बात और है कि अगर मुद्दे चर्चित ना हों, सांसद किसी वजह से चर्चित ना हो तो हर सांसद की बात लाइव प्रसारित नहीं की जाती, खासकर संसद टीवी से साभार लेकर निजी समाचार चैनल भी उन्हें प्रसारित नहीं करते। हां, संसद टीवी लगातार संसदीय कार्यवाही का प्रसारण करता रहता है।
    संसद की कार्यवाही का पहला प्रसारण 20 दिसंबर 1989 को दूरदर्शन पर शुरू हुआ। तब चुनिंदा संसदीय कार्यवाही को टेलीविजन पर दिखाया गया। फिर, 18 अप्रैल 1994 से लोकसभा की पूरी कार्यवाही को फिल्माया जाने लगा। उसी साल के अगस्त में, कार्यवाही का सीधा प्रसारण करने के लिए संसद भवन में एक लो पावर ट्रांसमीटर यानी एलटीपी स्थापित करके उससे प्रसारण शुरू किया गया। हालांकि यह प्रसारण संसद के करीब दस किलोमीटर के दायरे में ही दूरदर्शन के जरिए देखा जा सकता था। लेकिन दिसंबर 1994 से, दोनों सदनों के प्रश्नकाल का दूरदर्शन पर वैकल्पिक सप्ताह में सीधा प्रसारण किया जाने लगा। तीन नवंबर 2003 को जब डीडी न्यूज लांच हुआ तो उसके बाद के शीतकालीन सत्र से संसद के दोनों सदनों के प्रश्नकाल का प्रसारण डीडी चैनलों पर एक साथ होने लगा।
    संसदीय कार्यवाही के लाइव प्रसारण के इतिहास में दो घटनाएं बहुत याद की जाती हैं। जब अक्टूबर 1990 में भारतीय जनता पार्टी की समर्थन वापसी के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार अल्पमत में आ गई थी। उसके बाद वीपी सिंह ने संसद में विश्वास मत प्रस्तुत किया था। उस पर दो दिनों तक चली बहस का दूरदर्शन ने लाइव प्रसारण किया था। सांसदों से अंतरात्मा की आवाज पर वीपी सिंह का समर्थन मांगना बेहद चर्चित रहा। संसदीय कार्यवाही का दूसरा उल्लेखनीय इतिहास रहा तेरह दिन की वाजपेयी सरकार के विश्वास मत पर हुई चर्चा। तीन दिनों तक यह चर्चा चली थी। मई 1996 के आखिरी हफ्ते की उस चर्चा में विश्वास मत रखते और विश्वास मत पर चर्चा का जवाब देते हुए वाजपेयी ने जो भाषण दिया, उनके कालजयी भाषणों में उन्हें याद किया जाता है। माना जाता है कि उन भाषणों के बाद वाजपेयी की लोकप्रियता में अपार इजाफा हुआ। दो साल बाद सत्ता में उनकी वापसी में ये दोनों भाषण भी मील के पत्थर माने गए। इसके बाद से ही संसदीय बहसों में शामिल होते ही सांसद लाइव प्रसारण में उसे देखने की इच्छा पालने लगे।
    साल 2004 में वाजपेयी सरकार के सत्ता से बाहर होने के बाद संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की पहली सरकार आई। तब लोकसभा के अध्यक्ष मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सोमनाथ चटर्जी बने। तब उन्होंने संसदीय कार्यवाही के प्रसारण के लिए अलग से दो चैनलों का विचार दिया। इसी विचार को मूर्त रूप मिला दिसंबर 2004 में दोनों सदनों की कार्यवाही के सीधे प्रसारण के लिए एक अलग समर्पित सैटेलाइट चैनल की स्थापना की गई। 2006 में लोकसभा टीवी ने निचले सदन की कार्यवाही का सीधा प्रसारण शुरू किया। लेकिन राज्यसभा टीवी की शुरूआत तब नहीं हो पाई। उसकी अलग कहानी है। मोटे तौर पर राज्यसभा टीवी की शुरूआत उस दौर के नेता प्रतिपक्ष और सभापति के बीच मतभेदों के चलते नहीं हो पाई। जब हामिद अंसारी उपराष्ट्रपति बने तो उन्होंने राज्यसभा टीवी के लिए अलग से चैनल की शुरूआत हुई। की शुरुआत 2011 में हुई। यह बात और है कि यह चैनल स्वतंत्र रूप से सिर्फ एक दशक ही चल पाया। एक मार्च 2021 को लोकसभा और राज्यसभा-दोनों चैनलों को एक करके संसद टीवी बना दिया गया। दिलचस्प यह है कि जब से संसद टीवी बना है, तब से उस पर कुछ ज्यादा ही विवाद उठ रहे हैं। वैसे कुछ लोगों का मानना है कि दोनों चैनलों का विलय राजनीति के एक वर्ग को पसंद नहीं आया, इसलिए भी संसद टीवी के प्रसारण पर अक्सर सवाल उठाए जाते हैं।
    लोकसभा टीवी ने अपने प्रसारण के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है, जीवंत लोकतंत्र के विभिन्न पहलुओं को निष्पक्ष रूप से प्रस्तुत करने के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन सवाल यह है कि तथ्यों से रहित वक्तव्यों के प्रसारण को भी निष्पक्षता के इसी दायरे में रखा जा सकता है।

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