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मध्यप्रदेश में एक नहीं, तीन थीं भोजशालाएं

  • विजय मनोहर
    इंदौर हाईकोर्ट ने एक याचिका पर धार स्थित भोजशाला के वैज्ञानिक सर्वे के आदेश आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) को दिए हैं, किंतु देखने वाली बात यह है कि हम बीस साल से एक ही चौराहे पर माथा पकड़े खड़े हैं। सर्वे की रिपोर्ट बिना सर्वे के ही सर्वज्ञात है। भोजशाला में पत्थर खुद बोलते हैं और खंडित हों या साबुत पत्थर झूठ नहीं बोलते। मगर बहुत कम लोगों को यह ज्ञात होगा कि राजा भोज के समय केवल धार में ही नहीं, उज्जैन और मांडू में भी ऐसी ही इमारतें बनाई गई थीं, जिन्हें आज भोजशाला कहा जाता है। ये मूलत: राजा भोज के सरस्वती कंठाभरण थे।
    फरवरी 2003 में जब शुक्रवार के दिन वसंत पंचमी आई तो धार की भोजशाला देश भर में चर्चा का विषय बनी थी। तब तक साल में केवल वसंत पंचमी के ही दिन हिंदुओं को पूजा की अनुमति थी किंतु मुसलमान हर शुक्रवार को नमाज कर सकते थे। मैं इतिहास के एक जिज्ञासु के रूप में गया था और मुझे भीतर नहीं जाने दिया गया था। एक हिंदू बमुश्किल साल में एक दिन और एक मुसलमान साल में 52 दिन बेधड़क जा सकता था। वसंत पंचमी ने मुझे अवसर दिया और मैंने देखा कि प्रवेश द्वार से लेकर भीतर कलात्मक स्तंभों की श्रंखला भारत की प्राचीन स्थापत्य कला अपने प्रमाण स्वयं देती है। वह परमारों का एक उत्कृष्ट निर्माण था।
    परमार राजाओं की राजधानी पहले उज्जैन थी। राजा भोज ने धारा नगरी को अपनी राजधानी बनाया, जो आज का धार शहर है। भोजशालाएँ मूलत: सरस्वती के मंदिर थे, जहाँ राज्य पोषित भारत की ज्ञान परंपरा के शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्थाएँ व्यापक थीं। इनके नाम सरस्वती कंठाभरण थे। इतिहासविद डॉ. शशिकांत भट्‌ट इंदौर में रहते हैं, जिन्होंने मुझे यह बताया कि राजा भोज ने पहला सरस्वती कंठाभरण उज्जैन में बनवाया, दूसरा धार में और तीसरा मंडपदुर्ग में, जिसे आज मांडू कहते हैं। उज्जैन में वह अनंत पेठ मोहल्ले में आज बिना नींव की मस्जिद के रूप में मौजूद है, जो पहले एक उपेक्षित स्मारक की तरह लावारिस था और बाद में उस पर किसी इंतजामिया कमेटी ने अपना साइन बोर्ड टांग दिया था। डॉ. भट्‌ट ही मुझे लेकर वहाँ गए थे और यह जानकारी भी उन्होंने ही दी थी कि हमारी लापरवाही से हमारी विरासत किस तरह बरबाद हो रही है।
    मांडू में वह शाही परिसर में स्थित दिलावर खाँ का मकबरा है, जो धार की भोजशाला और उज्जैन की कथित बिना नींव की मस्जिद जैसे ही डिजाइन का है। धार की भोजशाला के पत्थर दोनों की तुलना में अधिक स्पष्ट हैं, जहाँ संस्कृत के कुछ नाटकों के शिलालेख भी दीवारों पर जड़े हैं। मुझे याद है उज्जैन में बिना नींव की मस्जिद के भीतर कब्जा करने वालों ने गाढ़े आइल पेंट से स्तंभों और दरवाजों को पोत दिया था ताकि मंदिर के चिन्ह नष्ट किए जा सकें। भगवती लाल राजपुरोहित जैसे विद्वानों ने राजा भोज के महान कृतित्व पर विस्तार से लिखा है। स्वयं राजा भोज की प्रसिद्ध रचना ‘समरांगण सूत्रधार’ उनकी रचनाशीलता का एक बेजोड़ ग्रंथ है, जिसमें निर्माण की तकनीकों पर बहुत विस्तार से सूत्रबद्ध किया गया है। राजस्थान के उदयपुर मूल के प्रसिद्ध अध्येता डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू ने एक हजार साल पुरानी रचना ‘समरांगण सूत्रधार’ की एक सुव्यवस्थित प्रति संपादित की थी।
    धार की भोजशाला पुरानी कब्रों के बीच एक रुला देने वाला बदहाल स्मारक है, जिसका यह हाल मुस्लिम कब्जों के समय हुआ। सऩ 1401 में मालवा पर स्वतंत्र कब्जा करने वाले दिलावर खाँ गौरी ने इन तीनों सरस्वती कंठाभरणों को एक साथ ध्वस्त किया था और इनके ही मलबे से मस्जिदनुमा इमारतें खड़ी करवा दी थीं। इस्लामी हमलों में दो काम एक साथ होते थे। एक मंदिरों को ध्वस्त कर उनके मलबे से उसकी मूल पहचान मिटाकर एक नई इमारत खड़ी करना और स्थानीय लोगों की बलपूर्वक पहचानें बदलकर मुसलमान बनाना। आज उन्हीं बदली हुई पहचान वालों के वंशज मस्जिद के रूप में अपने झूठे दावे काशी से लेकर धार तक दोहराते हैं, जबकि उन्हें अपनी सच्ची शिनाख्त करने की जरूरत है। न वे कभी मुसलमान थे और न ही ज्ञानवापी या भोजशाला कभी मस्जिद थीं। वे हिंदू थे और ये मंदिर थे।
    राजा भोज की राजधानी धार की भोजशाला स्मृतियों में अधिक सुरक्षित रही जबकि उज्जैन और मांडू के स्मारक समय के साथ स्मृतियों से धुंधला गए। अयोध्या, मथुरा और काशी की तरह ही धार की भोजशाला भी सेक्युलर भारत में केवल हाशिए पर ही पड़ी रहीं या इनके लिए कोर्ट-कचहरी की लंबी यातना सहने के लिए हिंदुओं को छोड़ दिया गया। फरवरी 2003 में दिग्विजयसिंह मुख्यमंत्री थे और धार ही नहीं पूरे मालवा के हिंदू समाज ने भोजशाला की मुक्ति का स्वर तेज किया था। लंदन के संग्रहालय में रखी वागदेवी की प्रतिमा को धार लौटाने की माँग इसमें शामिल थी। अगले ही साल कांग्रेस सत्ता से धराशायी हो गई। मगर उसके बाद क्या हुआ? बीस साल का समय बहुत होता है। सत्ता है तो उसकी धार दिखनी चाहिए किन्तु धार वैसा ही धूल खाता रहा। संस्कृति के नाम पर केवल गाने, बजाने, नाटक और उत्सव पर्याप्त नहीं हैं।
    अब 2024 में जब इंदौर हाईकोर्ट ने भोजशाला के सर्वे का आदेश दिया है तो मेरे लिए यह बहुत खुशी का विषय बिल्कुल नहीं है क्योंकि हमने दो दशक के लंबे शासन में भोजशाला का विषय पूरी तरह हाशिए पर ठंडे बस्ते में ही रखकर छोड़ा। एक इंच भी आगे नहीं बढ़े। सांस्कृतिक धरोहरों को लेकर हमारी राजनीतिक निष्ठाएँ बेहद लचर और कमजोर निकलीं। विचार शून्य और अनिर्णय में झूलने वाला नेतृत्व किसी समाज में कोई मिसाल प्रस्तुत नहीं करता, भले ही वह सत्ता में आजीवन टिका रहे। एक दिन वह अपने पीछे गहरी निराशा ही छोड़कर जाता है। तब मैं अक्सर सोचता हूं कि किसी को भी राजनीति में आना क्यों है और सत्ता में आकर करना क्या है?
    एक भोजशाला को लेकर हम 2003 से उसी चौराहे पर खड़े हैं। शेष दो का तो कोई नामलेवा भी नहीं है।

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