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शत-प्रतिशत मताधिकार के लिए हो सार्थक प्रयास!

  • सोनम लववंशी
    देश में लोकतंत्र का महापर्व यानी लोकसभा का चुनाव चल रहा है। बीते दिनों पहले चरण में 21 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश की 102 सीटों पर मतदान संपन्न हो चुका है। जहां साल 2019 में फर्स्ट फेज में 91 सीटों पर 69.43 प्रतिशत वोटिंग हुई तो वहीं मौजूदा दौर में वोटिंग प्रतिशत 66.21 रहा। जो कि पिछले चुनावों की तुलना में 3 प्रतिशत कम है। देखा जाए तो भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, और मतदान हमारे लोकतंत्र का एक अनिवार्य पहलू। डॉ दादूराम शर्मा ने गणतंत्र को परिभाषित करते हुए लिखा है- ‘नेता-अफसर पाट दो, चक्की है यह तन्त्र। जनगण गेंहू सा पिसे, यही आज का गणतंत्र।’ ऐसे में अगर राजनीति जाति, धर्म औऱ स्वार्थ के रथ पर सवार है, तो उसके लिए जिम्मेदार हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के जनगण भी है। कहने को तो हमारे देश की सबसे बड़ी खूबसूरती यह है कि हमें सरकार चुनने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। मतदान भारत में जन्म लेने वाले प्रत्येक भारतीय नागरिक का मौलिक अधिकार है। बावजूद इसके आधुनिक समय में हमारे देश के युवा अपने मत के प्रति जागरूक नहीं है। आज का युवा अपने अधिकारों के लिए तो सड़कों पर हंगामा करता है, लेकिन संवैधानिक कर्तव्यों से जी चुराता है। अक्सर गणतंत्र में जनगण दुखड़े तो रोता है, कि आज की राजनीति परिवारवाद और जातिवाद में जकड़ी हुई है। पर हर वक्त सिर्फ और सिर्फ रोग की व्यथा ही गाते रहना पर्याप्त नहीं होता, उसका निदान भी ढूढ़ना होता है। तो क्या कभी जनगण ने अपने कर्तव्यों और मिले अधिकारों का सही प्रयोग किया। शायद सौ फीसद उपयोग नहीं किया। तभी तो आज के दौर में लोकतंत्र का मतलब सिर्फ चुनाव औऱ राजनीति के खोखले वादे तक सीमित रह गया है।
    चुनाव को लोकतंत्र का उत्सव कहा जाता है। यह उत्सव कई रूप में देश के सामने आता है। कभी लोकसभा चुनाव के रूप में तो कभी विधानसभा या अन्य किसी चुनाव से इस उत्सव के रंग दिखाई देते हैं। चुनाव के माध्यम से रहनुमाई व्यवस्था चुनी जाती है। जिनके द्वारा निर्मित नीतियां सामाजिक उत्थान में सहायक होती है। इसके अलावा जनगण इन निर्णयों और नीतियों से प्रभावित भी होता है। तो ऐसे में आवश्यक हो जाता है, कि हर नागरिक अपने अधिकार का उपयोग करें, वह भी अपनी और समाज की भलाई के लिए जिम्मदारी पूर्वक। सरकार ने मतदान की प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए हर संभव प्रयास किया। लेकिन आज भी हमारे देश का युवा अपने मत के प्रति जागरूक नहीं है। भारत में मतदान प्रक्रिया के कई चरण होते हैं। इसमें छोटे स्तर के चुनाव जैसे पंचायत से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक होते हैं। बावजूद इसके कुछ लोग मताधिकार के प्रयोग को समय की बर्बादी समझते है, जो कि बहुत ही निंदनीय बात है। गुजरात में अनिवार्य मतदान का विधेयक भी पास हुआ, लेकिन हाई कोर्ट ने उस पर रोक लगा दी। अनिवार्य मतदान करवाने के पक्षधरों का मानना है, कि दुनिया के विभिन्न देश में यह रीति है, तो अपने देश मे क्यों नहीं? अर्जेंटीना, पेरू, उरुग्वे, सिंगापुर, नौरू, ब्राजील, कांगो और स्विट्जरलैंड जैसे देशों में अनिवार्य मतदान पद्धति को अपनाया गया है। यहां तक कि ऑस्ट्रेलिया में तो मतदान नहीं करने पर दंड का भी प्रावधान है। हमारे देश में करीब नब्बे करोड़ से अधिक मतदाता है, जिनमें से बड़ी संख्या में लोग रोजी-रोटी की कमाई के लिए घर से बाहर रहते हैं, तो अगर मतदान अनिवार्य हो भी जाए, तो जी का जंजाल ही साबित होगा। ऐसे में अनिवार्य मतदान के लिए कोई सार्थक पहल करनी होगी।
    कहते हैं कि जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करती। पर गणतंत्र की जनगण ने शायद अपने अधिकारों से समझौता करना सीख लिया है। तभी तो वह अपने मिले अधिकार का उपयोग भी नहीं कर पा रहीं और यही जनतंत्र में जन की भावना के दमन का सबसे बड़ा कारण है। मतदाता वर्ग काे यह समझना होगा, कि उसके मत से ही देश, राज्य और पंचायत की व्यवस्था चलती है। अगर वे अच्छे नेतृत्व को चुनेंगी, तभी सामाजिक सरोकार से ज़ुड़े मुद्दों पर कार्य होगा। मतदाता लोकतंत्र की रीढ़ होते हैं, यह उन्हें समझना होगा। बिजली, पानी, सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य और सड़कें ये सभी मूलभूत सुविधाएं अवाम को मुहैया हो सकती है, अगर अवाम अपने मताधिकार के अधिकार को समझ जाएं। एक मत की कीमत भी लोकतंत्र में होती है, यह देश के जनगण को समझना होगा।

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