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- पदमचंद गांधी
बुद्ध पूर्णिमा वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा का दिन है। इस शुभ दिन भगवान बुद्ध ने नेपाल के लुंबिनी नामक स्थान पर शाक्य सम्राट शुद्ध ओ धन एवं माता माया देवी के प्रांगण में 563 ईशा वर्ष पूर्व जन्म लिया। यह वही दिन था जिस दिन 528 ईशा वर्ष पूर्व उन्होंने बोधगया में एक वृक्ष के नीचे बौद्ध ज्ञान प्राप्त किया और यह वही दिन था जहां कुशीनगर में 483 ईशा वर्ष पूर्व 80 वर्ष की आयु में नश्वर देखकर त्याग कर दिया। यह एक अद्भुत सहयोग है जहां जन्म, बोधी ज्ञान एवं निर्माण इसी दिन अर्थात वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को प्राप्त किया। यह दिन भगवान बुद्ध को समर्पित है इसलिए इस दिन को बुद्ध पूर्णिमा के नाम से जानते हैं।
भगवान बुद्ध ने लुप्त हो रही मानवीयता को नवजीवन का वरदान दिया। परमात्मा की सृष्टि रूप झील में भगवान बुद्ध ,बुद्ध ज्ञान के ऐसे खिले हुए कमल पुष्प थे जिनकी ज्ञान सुरभि में मानवता की सोपान चढ़े। सिद्धार्थ के हृदय में जीवन मृत्यु के मूल प्रश्नों पर चिंतन मनन चलता रहता था। वे सोचते जब सब कुछ अस्थाई है, नश्वर है, मिटाने योग्य है, तो इतने उपद्रव, भाग दौड़ आरंभ सारंभ, किसके लिए? इस भावना ने उन को झकझोर दिया और वे संसार से विरक्त होने लगे । उनमें करुणा, मैत्री ,और प्रेम के बीज अंकुरित होने लगे। यशोधरा से विवाह होने पर तथा राहुल नामक पुत्र प्राप्ति के बाद भी संसार से अनासक्ति बनकर, मोह त्याग कर सत्य की खोज में निकल पड़े। अपने प्रिय अश्व कंटक और सेवक चनना को राज्य की सीमा तक साथ रखा और वहां पर राजश्री वस्त्र, स्वर्ण आभूषण एवं अलंकरण का त्याग कर स्वयं के केश को नदी में विसर्जित कर साधारण वस्त्र पहने हुए सत्य के मार्ग पर चल पड़े। महीना महीना तक चावल का एक दाना ग्रहण करके जीवन यापन करते रहे। अनेक को कष्ट सहने तथा हठयोगी की पराकाष्ठा को पार कर शरीर को कृश्य एवं सुखा दिया। 7 वर्ष की कठिन साधना और त्याग के बाद बोधी प्राप्त नहीं होने पर बोधी प्राप्ति हेतु संकल्प करके साधना में लीन हो गए । तीन दिन और तीन रात के बाद उन्होंने सत्य का बोध हो गया। जिस वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ वह वृक्ष आज भी बोधगया में साक्षी है।
पास के गांव की एक युवती सुजाता रोज उसे वृक्ष की पूजा करने आती और बुद्ध को भोजन देकर चली जाती। लेकिन आज के दिन जब वह पहुंची तो अलौकिक आभा देख कर उन्हें बुद्ध के नाम से संबोधित किया, और सिद्धार्थ बुद्ध बन गए। बोधी प्राप्ति के बाद उन्होंने अपने पांच शिष्यों को पहली बार धार्मिक उपदेश दिया। इस उपदेश से समाज में पच प्रथा का प्रचलन प्रारंभ हुआ । पांच प्रथा की नींव यहीं से पड़ी । भगवान बुद्ध पहले ऐसे गुरु थे जिन्हें उनके उन मार्गदर्शकों ने गुरु के रूप में स्वीकार किया। श्रावस्ती में उनके एक शिष्य अनिरुद्ध ने बुद्ध को तथागत अर्थात जो अजर अमर है, ने कहीं जाता है, और न कहीं आता है -का नाम दिया। तब से भी तथागत कहलन लगे ।