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भारत रत्नों के विचारों का आज सामाजिक आर्थिक महत्व अधिक

आलोक मेहता
प्रधानमंत्री द्वारा देश के महान नेताओं तथा कृषि वैज्ञानिक को भारत रत्न सम्मान की घोषणाएं किए जाने पर केवल राजनैतिक दृष्टि से देखा जाना अनुचित लगता है। यह न केवल इन महान विभूतियों के सामाजिक आर्थिक राष्ट्रीय योगदान को कमतर करके देखना जैसा है। इसमें कोई शक नहीं कि पूर्व सरकारों ने समय रहते इन नेताओं को समुचित सम्मान नहीं दिया। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी, पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरणसिंह, पी.वी. नरसिम्हा राव, पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, पिछड़े गरीबों के नेता बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने भारत के राजनैतिक सामाजिक आर्थिक बदलाव के लिए अपने विचारों कार्यों से महत्वपूर्ण योगदान दिया और वर्तमान दौर में उनका अनुसरण कार्यान्वयन अधिक उपयोगी हो गए हैं। मेरा सौभाग्य रहा है कि अपनी पत्रकारिता के लगभग 50 वर्षों के दौरान इन नेताओं की गतिविधियों को देखने,समझने,उनसे मिलने, देश विदेश की यात्रा करने और उन पर लिखने बोलने के अवसर मिले। यही नहीं कभी-कभी उनके कुछ राजनीतिक निर्णयों पर आलोचनात्मक टिप्पणियां भी लिखीं, लेकिन सुखद अनुभव यह है कि उन्होंने कभी शिकायत नहीं की और अपने विचारों को स्पष्ट किया।
यह भी स्वीकारा जाना चाहिए कि भारत रत्न से सम्मानित चौधरी चरण सिंह,कर्पूरी ठाकुर,पी वी नरसिम्हा राव, प्रणव मुखर्जी वर्तमान भाजपा सरकार और संघ की राजनैतिक विचारधारा से एक हद तक भिन्न विचारों वाले और विरोधी भी थे। लालकृष्ण अाडवाणी भाजपा के शीर्ष नेता होने के बावजूद हाल के वर्षों में किनारे से रहे हैं। यहां तक कि कांग्रेस पार्टी और कुछ अन्य दलों के नेता अाडवाणी जी की अनदेखी के आरोप मोदी सरकार पर लगा रहे थे। इस परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऐतिहासिक निर्णयों की सराहना होनी चाहिए। ताजे निर्णय से उत्तर दक्षिण को बांटने के कांग्रेस और उसके साथी दलों के कुत्सित प्रयासों को भी करारा उत्तर मिला है।
पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ‘मिट्टी के महान पुत्र’ थे और उन्हें वास्तव में भारत में आर्थिक सुधारों का जनक कहा जा सकता है क्योंकि उनके पास उन्हें आगे बढ़ाने के लिए दूरदर्शिता और साहस दोनों थे। 1991 ने भारत को पूरी तरह से बदल दिया था। भारत ने आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत हुई थी और बाजार को विदेशी पूंजी के लिए खोला जाने लगा था। उनके इस सुधार के जनक थे प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव। चंद्रशेखर के बाद प्रधानमंत्री बने नरसिम्हा राव देश में गठबंधन सरकार चलाने वाले दूसरे प्रधानमंत्री थे और अल्पमत की सरकार होने के बावजूद उन्होंने देश में बड़े बदलाव किए और इसी कारण उन्हें भारतीय आर्थिक सुधार का जनक माना जाता है। नरसिम्हा राव से पहले भारतीय लोकतंत्र के शीर्ष पद तक सिर्फ उत्तर भारतीय राजनीतिज्ञ ही पहुंचे थे। देश के प्रधानमंत्री बनने वाले वो दक्षिण भारत के पहले राजनेता थे। 1991 से 1996 के बीच वो देश के नौवें प्रधानमंत्री के तौर पर आसीन रहे,उन्होंने आर्थिक संकट से जूढ़ रहे देश को बुरी स्थिति से बाहर निकाला।
खास बात ये रही है कि नरसिम्हा राव ने प्रधानमंत्री रहते हुए अपनी सरकार में रक्षामंत्री और विदेशमंत्री की जिम्मेदारी भी संभाली और उसके चलते देश की रक्षा और विदेश नीति में भी बदलाव आए, सोवियत संघ के बंटवारे के बाद नरसिम्हा राव ने उसकी घटती ताकत को समझा और देश का रुझान ज्यादा ताकतवर अमेरिका की ओर किया। इसका नतीजा हुआ कि भारत और अमेरिका की नौसेना के बीच ‘मालाबार युद्धाभ्यास’ की शुरुआत हुई। 1992 में नरसिम्हा राव ने ही इस्राइल के साथ भारत के रिश्तों की खुले तौर पर शुरुआत की और इसका नतीजा हुआ कि राव ने इस्राइल को नई दिल्ली में अपना दूतावास खोलने की इजाजत दी।
भारत की नई आर्थिक नीति वर्ष 1991 में पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में शुरू की गई थी। इस नीति ने पहली बार भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए वैश्विक प्रदर्शन का द्वार खोला। इस नई आर्थिक नीति में पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने आयात शुल्क कम कर दिया, निजी खिलाड़ियों के लिए आरक्षित क्षेत्र खोल दिया, निर्यात बढ़ाने के लिए भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन किया। इसे विकास का एलपीजी मॉडल भी कहा जाता है। 1989 में आइएमएफ ने चेतावनी भी दी थी। फिजूलखर्ची के कारण देश में भुगतान का संकट पैदा हो गया था। केंद्र में लगातार अस्थिर सरकारों का दौर था। संकट पर आंख बंद कर लेने की रणनीति से स्थिति बिगड़ती गई। अंतत: खजाने की हालत की परवाह किए बिना खर्च की आदत 1991 में एक डरावने रूप में हमारे सामने आई। दूसरी ओर चीन और अन्य एशियाई देशों ने हमसे पहले ही अपने यहां राजकोषीय और ढांचागत बदलाव के कदम उठा लिए थे। 1991 में पानी सिर से ऊपर पहुंच गया था। भुगतान संकट से बचने के लिए सरकार को सोना गिरवी रखना पड़ा। तब पीवी नरसिंह राव सरकार ने आर्थिक सुधारों की दिशा में कदम उठाने का फैसला लिया।
इसी तरह, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने छोटे किसानों के हितों के प्रति अपनी सरकार की प्रतिबद्धता दोहराई। मोदी ने घोषणा की थी कि उनकी सरकार छोटे किसानों के हितों के लिए प्रतिबद्ध है। अपनी कृषि नीतियों के मार्गदर्शक के रूप में, उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का ही आदर्श रखा। मोदी ने कहा, ‘हम जानते हैं कि दशकों पहले चौधरी चरण सिंहजी द्वारा दिखाए गए रास्ते से मजदूरों और छोटे किसानों को कितना लाभ हुआ।’ ‘इन सुधारों के कारण आज कई पीढ़ियां सम्मानजनक जीवन जी रही हैं। यह बहुत जरूरी है कि सरकार उन छोटे किसानों के साथ खड़ी हो जिनकी चौधरी साहब को इतनी चिंता थी।’
भारत रत्न चौधरी चरण सिंह ने दशकों पहले उत्तर प्रदेश में पटवारियों के आतंक से मुक्ति के लिए 27,000 पटवारियों का त्याग पत्र लेकर लेखपाल पद का सृजन किया। लेखपाल की भर्ती में उन्होंने 18% स्थान दलितों के लिए आरक्षित किए थे। उन्होंने आजीवन किसानों को उपज का उचित दाम दिलवाने के लिए कार्य किया। उनका कहना था कि भारत का संपूर्ण विकास तब ही होगा, जब गांव के किसान खुशहाल होंगे। वे बार-बार कहते थे असली भारत गांव में बसता है। वे अपने अनुयायियों से कहते थे एक आंख दिल्ली की सत्ता पर और दूसरी हल पर रखो। किसानों के प्रति उनके काम को देखते हुए कई जिम्मेदारियां मिली। उसी में से एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी थी-जमींदारी प्रथा का उन्मूलन, जिसे चौधरी साहब ने बखूबी अंजाम दिया। अब उनके सपनों के अनुरूप किसान आत्म निर्भर हो रहे हैं।

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