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- विजय मिश्रा ‘अमित’
छुट्टियां हर किसी को मोहित करती है, किंतु बचपन में मिली गरमी की छुट्टियों को आजीवन बुलाया नहीं जा सकता। दरअसल स्कूल और पढ़ाई से दूर मामा गांव की अमराई से आम खाने, नानी के हाथों की मलाई चाटने और तालाब में भैस की पूंछ पकड़ कर तैरने जैसे अनेक आनंद का अवसर छुट्टियां देती थीं।
शहरी धूल, धुआं, कोलाहल से दूर गांव के मैदान में कबड्डी, गिल्ली डंडा खेलना, रात्रि के समय चांदनी रात में धूप छांव,नदी पहाड़ खेलना,लोक मंचों पर रामलीला, नाचा, तमाशा का मंचन देखना बेहद मजेदार होता था। मंच के सामने बैठने हेतु पहले से बारदाना को बिछाकर अपना स्थान सुरक्षित रख लेते थे। ईमानदारी भी क्या गजब की थी, किसी के बिछाए बारदाना को कोई छूता नहीं था।
गांव में बहती नदी के सूखे हिस्से में बनी बाड़ी से तरबूज, खरबूज,खीरा ककड़ी की चोरी करना तो बड़ा ही रोमांचक होता था। वहां के चौकीदार को बाड़ी के पीछे गाय घूसने की झूठी खबर देते थे और डंडा लेकर जैसे ही वह पीछे की ओर गाय भगाने जाता था, बानर सेना की तरह बाड़ी में हम टूट पड़ते थे। चौकीदार के लौटने के पहले उसे चकमा देकर हम रफूचक्कर हो जाते थे। इस चक्कर में पकड़े जाने, शिकायत होने पर दो चार बार नाना जी के हाथों बबूल की दातुन से मार का स्वाद भी चखना पड़ा था।
शरारतें तो खूब होती थीं,पर गांव के संस्कार, लोक संस्कृति, पर्व परम्पराओं, विवाह के रस्म रिवाजों को भी जानने का मौका छुट्टियां देती थीं। नाना जी के साथ गावं के बाहर बरगद पेड़ के नीचे मटकों में गुड़ पानी भरकर बैठना और आते जाते प्यासे पथिकों को पानी पिलाना अत्यंत ही सुखकारी होता था।
आज छुटि्टयों के वो मजेदार दिन याद करते हुए मन कहता है-पैसा भले ही कम था ,पर बचपन में दम था। हम भी अमीर हुआ करते थे,बारिश में कागज के जहाज हमारे भी चला करते थे। बालपन में गुजारे दिन जीवन की किताब के पन्नों पर अमिट स्याही लिखे हुए हैं। उनका स्मरण करते, लम्बी सांसे छोड़ते मन कहता है ‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन’।