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- रमेश शर्मा
आज जलियांवाला बाग नरसंहार को एक सौ चार वर्ष हो गये। इस दिन जनरल डायर ने वैशाख उत्सव के लिये एकत्रित सहित निर्दोष नागरिकों पर गोलियां चलाने का आदेश दिया था। इसमें तीन सौ से अधिक लोगों का बलिदान हुआ और डेढ़ हजार से अधिक लोग घायल हुये थे। इनमें से भी अनेक लोगों ने बाद में प्राण त्यागे। ये सब संख्या जोड़े तो मरने वालों के आकड़े आठ सौ के पार होते हैं।
भारत में सामूहिक नर संहार का एक लंबा इतिहास है। अंग्रेजों से पहले भी सामूहिक नरसंहार हुये हैं। हर आक्रांता ने नर संहार किये हैं और लगभग हर क्षेत्र में हुये। भारत पर विदेशी आक्रमण और विदेशी हमलावरों द्वारा लूट और अपनी सत्ता स्थापित करने के लिये यह खूनी खेल लगभग बारह सौ वर्षों तक चला। शायद ही कोई ऐसा दिन गया हो जब भारत की धरती अपने ही बेटों के रक्त से लाल न हुई हो। सैकड़ों घटनाओं का जिक्र तक नहीं है। जिनका है उनका एक दो पंक्तियों में मिलता है। यदि सभी सामूहिक नरसंहार की गणना की जाये तो लिखने के लिये पन्ने कम पड़ेंगे।
अंग्रेजों द्वारा भारत में किया गया यह नरसंहार भी पहला या अंतिम नहीं है। अंग्रेजीराज में भी विभिन्न स्थानों पर ऐसे सामूहिक नरसंहार किये जाने की घटनाएं भी पचास से अधिक हैं। इनमें हजारों लोगों का बलिदान हुआ। लेकिन जलियांवाला बाग सामूहिक नरसंहार भारतीय इतिहास में एक नया मोड़ लेकर आया। उसके बाद भारत में अंग्रेजों के विरूद्ध स्वतंत्रता संघर्ष में तेजी आई। यह तेजी दोनों प्रकार के आंदोलन में देखी गई। अहिंसक और आलोचनात्मक संघर्ष में भी और सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन में भी। जलियांवाला बाग सामूहिक नरसंहार के बाद मानों भारतीयों की सहनशक्ति जबाब दे गई थी। यह ठीक वैसा ही है जैसे जल से भरा हुआ प्याला एक बूंद पानी भी पचा नहीं पाता। एक अतिरिक्त बूंद और आने पर छलक उठता है। भीतर का पानी भी बाहर फेंकने लगता है। ठीक वैसे ही अंग्रेजों के आतंक से आकंठ डूबे भारतीय जन मानस में एक ज्वार उठ आया।
इस घटना के बाद स्वाधीनता संघर्ष को एक नयी गति मिली और पूरा भारत उठ खड़ा हुआ। इससे पहले भी ऐसी घटनाएं स्वतंत्रता या स्वाभिमान संघर्ष के लिये निमित्त बनीं हैं। 1857 में भी यही हुआ था। प्लासी का युद्ध जीतकर ही अंग्रेजों ने भारत में दमन चक्र चलाना आरंभ कर दिया था। जो 1803 में दिल्ली पर कब्जा करने के बाद बहुत तेज हुआ। अंग्रेजों के अत्याचारों का प्रतिकार भी लगातार हुये। यदि अत्याचार प्रति दिन हुये तो उनका प्रतिकार भी प्रतिदिन हुआ। किंतु 1857 में मंगल पांडे के बलिदान के बाद भारत में क्रांति की ज्वाला धधक उठी और पूरे देश में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का आरंभ हो गया। बलिदानी मंगल पांडे का प्रतिकार ही 1857 की क्रान्ति का मूल बनी। इतिहास की वही पुनरावृत्ति जलियांवाला बाग कांड के बाद हुई। उस दिन जलियां वाला बाग में लोग किसी संघर्ष के लिये एकत्र नहीं हुये थे। वैशाखी मनाने एकत्र हुये थे। यदि संघर्ष के लिये एकत्र होते तो महिलाओं और बच्चों को भी साथ क्यों ले जाते। हां यह बात अवश्य है कि वे अपनी संस्कृति और परंपराओं के प्रति जागरूक थे। वहां एकत्र समूह संस्कृति और परंपरा निर्वाहन के संकल्प के साथ ही वहां एकत्र हुये थे। लेकिन अंग्रेजी फौज ने चारों ओर से घेर लिया और अंधाधुंध फायरिंग आरंभ कर दी। इस कांड के प्रतिशोध के लिये सैकड़ों युवाओं ने संकल्प लिया किंतु सफलता क्रांतिकारी ऊधमसिंह को मिली। उन्होंने लंदन जाकर जनरल डायर को मौत की नींद सुला दिया था। इस कांड पर अंग्रेजों को खेद जताने में सौ साल लगे। 2019 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने पहली बार खेद जताया। इससे पहले अंग्रेजों ने इस घटना और इस तरह की तमाम घटनाओं को कभी गंभीरता से न लिया था। वे हर नरसंहार का औचित्य प्रमाणित करते रहे।
अंग्रेजों या यूरोपियन्स ने ऐसे नरसंहार केवल भारत में ही नहीं किये हैं। पूरी दुनिया में किये हैं। इसका कारण यह है कि वे इस प्रकार के सामूहिक नरसंहार करने के आदि रहें हैं। मध्य एशिया से लेकर यूरोप तक के लोग जिन भी देशों में भी गये, उन देशों में जाकर अपनी सत्ता स्थापित करने या स्थापित सत्ता को सशक्त करने के लिये नर संहार ही किये हैं। ऐसा कोई देश अपवाद नहीं। अमेरिका और अफ्रीका में अंग्रेजों के ऐसे नर संहार किये जाने की घटनाओं से भी इतिहास भरा है। अंग्रेज ही नहीं अन्य यूरोपियन्स समूहों द्वारा भी सामूहिक नरसंहार करना सामान्य बात है। भला यूरोप का ऐसा कौनसा देश है जहां यहूदियों का सामूहिक नर संहार न हुआ हो। लाखों यहूदियों का तड़पा- तड़पा कर प्राणांत किया है। केवल भारत है, भारत की सनातन परंपरा है इन्हीं लोगों ने विश्व बंधुत्व, परोपकार, सेवा और मानवीय मूल्यों की स्थापना की बात की।
यदि हम इतिहास की घटनाओं का विश्लेषण करें तो हम पायेंगे कि सनातन परंपरा का अनुपालन करने वाले भारतीयों के अतिरिक्त अन्य सभी समूहों द्वारा की गई प्रेम, शांति और भाई चारे की बातें मानों बनावटी रहीं, दिखावा रहीं । वे सेवा शांति की बात करके अपने निश्चित अभियान में सदैव लगे रहे। ऐसा आज की दुनियां में भी देख सकते हैं । लेकिन भारतीय सदैव इससे अलग रहे। वैदिक आर्यों से लेकर स्वामी विवेकानंद तक जो जहां गया, सबसे जीवन का संदेश ही दिया । पूरे विश्व को अपना कुटुम्ब माना और प्रकृति से जुड़कर सह अस्तित्व के साथ जीने की शिक्षा दी। आधुनिक युग में भी यदि भारतीय बच्चे कहीं जा रहे हैं तो सेवा के लिये जा रहे हैं। आज की दुनियां में भला ऐसा कौनसा ऐसा संस्थान है जो भारतीयों की सेवा से पुष्पित और पल्लवित न हो रहा हो। सुविख्यात वैज्ञानिक संस्थान नासा से लेकर विलगेट्स के औद्योगिक समूह तक सबकी नींव में भारतीय हैं।
आज जलियां वाला बाग के सामूहिक नरसंहार का स्मृति दिवस है। यह नर संहार ध्यान में आते ही जहां हमारा मन उन निर्दोष बलिदानियों के रक्त पात से आहत है तो वहीं इस बात का गर्व भी कि क्रांति कारी ऊधमसिंह ने लंदन जाकर बदला लेने का उदाहरण प्रस्तुत किया। इतिहास की ऐसी घटनाएं केवल स्मरण करने की भर नहीं होतीं। कोई संदेश लेने की भी होती हैं। आखिर अंग्रेज क्या घोषणा कर भारत आये थे। कैसे मीठी बातों से उन्होंने भ्रमित किया, कैसे व्यापार में समृद्धि के सपने दिखाये थे।