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मौजूदा किसान आंदोलन के आगे-पीछे

उमेश चतुर्वेदी
खेती-किसानी की संस्कृति वाले अपने देश की बिडंबना कहेंगे या फिर कुछ और…गुलाम भारत में बदहाल रही खेती-किसानी को लेकर आजाद भारत में भी क्रांतिकारी बदलाव नहीं आ पाया। राजनीति का खेल कहें या शासन व्यवस्था की नाकामी, आजाद भारत के सारे चुनावों में किसानों की स्थिति मुद्दा रही। वामपंथी धारा की राजनीति हो या राष्ट्रवादी धारा की, समाजवादी हों या मध्यमार्गी, हर राजनीतिक दल, सभी चुनावों में किसान, मजदूर और गरीब को ही मुद्दा बनाता रहा। लेकिन आजादी के पचहत्तर साल बाद भी संपूर्ण भारत भूमि को वैसी चमक हासिल नहीं हो पाई, जैसी औद्योगिक क्रांति के बाद के महज डेढ़ सौ सालों में ही यूरोप ने हासिल कर लिया। बेशक भारत आज दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर वह तेजी से अग्रसर भी है। लेकिन इस आर्थिक विकास का आनुपातिक हिस्सा गरीबों, मजदूरों और किसानों को नहीं मिल पाया है। मौजूदा किसान आंदोलन को लेकर अगर देश के एक बड़े वर्ग में सहानुभूति है तो इसकी एक बड़ी वजह हमारी व्यवस्था की नाकामी से उपजा असंतुलन ही है। किसानों को लेकर बनी सोच का ही नतीजा है कि दो साल पहले हुए किसान आंदोलन की हिंसा और हठधर्मिता के बावजूद देश का एक बड़ा हिस्सा उनके प्रति हमदर्दी रखता रहा है।
स्वाधीन भारत में कई किसान आंदोलन हुए। बेशक हमारा देश अब औद्योगिक और सेवा क्षेत्र का बड़ा हब बनता जा रहा है, लेकिन अब भी देश की बड़ी आबादी खेती-किसानी पर निर्भर है। एक आंकड़े के मुताबिक अब भी ग्रामीण आबादी का 54 फीसद हिस्सा सिर्फ खेती और किसानी पर ही निर्भर है। अपना देश विशाल है और स्थानीय स्तर पर लोगों की अपनी-अपनी समस्याएं भी रहती ही हैं। स्वाधीन भारत ने जिस ब्यूरोक्रेसी को अपनाया है, कई बार उसकी जड़ सोच की वजह से भी स्थानीय स्तर पर समस्याएं उपजती ही रहती हैं। उसकी वजह से स्थानीय स्तर पर हर समय देश के किसी ना किसी हिस्से में किसान आंदोलन होते ही रहते हैं। लेकिन हाल के वर्षों में बड़े किसान आंदोलन अगर हुए हैं, उनमें प्रमुख रूप से तीन-चार के ही नाम गिनाए जा सकते हैं। पिछली सदी के अस्सी के दशक में भारतीय किसान यूनियन नेता महेंद्र सिंह टिकैत की अगुआई में हुआ आंदोलन इनमें सबसे ज्यादा उल्लेखनीय रहा है। शायद यह पहला मौका था, जब किसानों ने दिल्ली के वोट क्लब को घेर लिया था। जब नरसिंह राव ने उदारीकरण की नीतियां स्वीकार कीं, भारत जब विश्व व्यापार संगठन का हिस्सा बना, तब शेतकारी संगठन जैसे किसान संगठनों की अगुआई में खेती में विदेशी हस्तक्षेप और भारतीयता की परंपरा को खत्म करने की आशंकाओं के खिलाफ पिछली सदी के आखिरी दशक में लंबा आंदोलन चला। हरियाणा में बिजली बिल माफ करने की मांग को लेकर हुए आंदोलन को भी इस सूची में जोड़ सकते हैं।
लेकिन अतीत के ये आंदोलन कभी हिंसक नहीं रहे। अगर किंचित हिंसा हुई भी तो उसके निशाने पर सार्वजनिक स्थल आदि ही रहे। लेकिन पिछले दो साल से हो रहे किसान आंदोलन को लेकर ऐसा नहीं कहा जा सकता। दो साल पहले साल 2021 की 26 जनवरी के दिन दिल्ली में जिस तरह अराजकता फैलाई गई, उसके बाद से सामान्य सहानुभूति के पात्र रहे किसानों को लेकर लोक विश्वास में दरार पड़ी। दिल्ली में नांगलोई के पास किसानों ने तब जिस तरह सामान्य नागरिकों को निशाना बनाया था, उससे किसान संगठनों के आंदोलन को लेकर लोगों की सोच बदली। रही-सही कसर पूरी कर दी 26 जनवरी 2021 के दिन हुई अराजकता ने पूरी कर दी। लाल किले पर कब्जे को लेकर हुई किसान हिंसा के बाद तो किसान आंदोलन को विदेश प्रेरित भारत विरोधी आंदोलन मानने वालों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई।
किसान संगठनों को यह मान लेना चाहिए कि भारतीय समाज के शहरी हिस्से के सरोकार खेती-किसानी से पहले वाली पीढ़ी की तरह रागात्मक नहीं रहे। शहरी समाज की अपनी चुनौतियां हैं और उनका जीवन संघर्ष भी अपनी तरह का है। दिल्ली जैसे शहर में नौकरी करने वाली बड़ी जनसंख्या दूर-दराज के इलाकों में रहती है। पिछले किसान आंदोलन के दौरान महीनों तक चली दिल्ली की घेरेबंदी के चलते उत्तर प्रदेश और हरियाणा की ओर से आने-जाने वाले लोगों को रोजाना जो दिक्कतें झेलनी पड़ीं, उसके बाद ही किसान आंदोलन को लेकर शहरी लोगों का नजरिया पूरी तरह बदल गया। शायद यही वजह है कि इस बार जारी आंदोलन को लेकर किसानों को लेकर पारंपरिक सहानुभूति नहीं दिख रही। इस आंदोलन को लेकर यह मानने वालों की भी कमी नहीं है कि इसके पीछे विदेशी ताकतें हैं और राजनीतिक स्तर पर इसे विपक्षी दलों की ओर हवा दी जा रही है। ऐन चुनावों से ठीक पहले आंदोलन का खड़ा होना, उसे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी द्वारा बार- बार सहयोग देना, ममता बनर्जी और तेजस्वी यादव द्वारा इस आंदोलन के बहाने सीधे प्रधानमंत्री मोदी पर कटाक्ष करना लोगों की इस सोच को बढ़ावा ही दे रही है।
किसान संगठनों के मौजूदा आंदोलन की प्रमुख मांग है, स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों को लागू करना है। इसी सिफारिश के आधार पर सभी फसलों के लिए एमएसपी घोषित करने की मांग किसान संगठन कर रहे हैं। न्याय यात्रा पर निकले राहुल गांधी अपनी हर सभाओं में इसका समर्थन कर रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि स्वामीनाथन समिति ने अपनी रिपोर्ट साल 2006 में दी थी। उसके पूरे आठ साल बाद तक केंद्र में कांग्रेस की अगुआई वाली ही सरकार थी। राहुल गांधी तब भी संसद के सदस्य रहे। तब किसानों को यह सहूलियत देने की राहुल और उनकी कांग्रेस को क्यों नहीं सूझा? आज के आंकड़ों पर ही भरोसा करें तो अगर सभी फसलों पर एमएसपी घोषित कर दी जाए तो भारत सरकार पर करीब 71 लाख करोड़ का दबाव बढ़ेगा। जबकि भारत का कुल बजट ही 47 लाख करोड़ का ही है। सवाल यह है कि अगर एमएसपी की मांग मान भी ली गई तो भारत 24 लाख करोड़ रूपए कहां से लाएगा। साफ है कि स्वामीनाथन समिति की सिफारिश को पूरी तरह लागू कर पाना ना तो कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार के वश की बात थी और ना ही मोदी सरकार के लिए संभव है। चूंकि आज की राजनीति का लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ सत्ता प्राप्ति रह गया है। इसलिए हर राजनीतिक दल का सच अपना-अपना हो गया है। वह सार्वभौम या मूल सत्य पर नहीं टिका रहता। यही वजह है कि कांग्रेस किसानों को अपने दौर का सच नहीं बता रही है। उस सरकार में शामिल ममता और लालू यादव को भी यह सच पता है। लेकिन वे भी इसके मुताबिक अपनी राय ना रखते हुए सिर्फ और सिर्फ मौजूदा केंद्र सरकार को ही किसानों की बदहाली के लिए जिम्मेदार बता रहे हैं।

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