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- आचार्य मिथिलेशनंदिनी शरण
संकलित हुये चित्त में एकमात्र प्रतीति का होना ध्यान है
-योग दर्शन, महर्षि पतञ्जलि
ध्यान पर चर्चा हो रही है, भांति-भांति की मीमांसाएं सामने आ रही हैं। वे भी मुखर हैं जो धर्म और दर्शन से परिचित तक नहीं है और ध्यान ‘धर्म’ है या ‘दर्शन’..ये बता पाने में सक्षम नहीं हैं। महर्षि पतञ्जलि के अनुसार बिखरे हुये चित्त को समेटकर रखना धारणा है और उसमें एक समय में एक ही प्रतीति का होना ध्यान है। सामान्यतया हमारी चेतना अनेक इंद्रियों के मार्ग से अनेक विषयों में प्रवृत्त रहती है। एक साथ ही शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गंध आदि अनेक प्रतीतियों में चित्त का प्रवाह होता रहता है।
उस दशा में चित्त अपनी क्षमता के अल्पांश का उपयोग करता है। परिणामतः दिव्यता तिरोहित हो जाती है। अष्टांग योग की चरणबद्ध पद्धति से, प्रत्याहारपूर्वक बिखराव को समेटकर, धारणा की स्थिति में विक्षेपशून्य चित्त को एक ही लक्ष्य पर एकाग्र करने से साधक अपनी चित्त शक्ति की असाधारणता को उपलब्ध कर लेता है। यह परिवेश के प्रभाव, विक्षेप और विकार से मुक्त आत्मवत्ता को पाने का यत्न है। वह आत्मवत्ता, जो परमात्म भाव से तादात्म्य के योग्य बनाती है। युद्धरत श्रीराम का ध्यानस्थ होना, महाभारत में श्रीकृष्ण का गीता-उपदेश करना और श्रीकृष्ण-समागम से वञ्चिता गोपियों का ध्यान मात्र के द्वारा गुणमय देह की सीमायें पारकर प्रियतम का चिन्मय समागम प्राप्त होना.. ध्यान के वे उदाहरण हैं जो हमारी संस्कृति में धरोहर के रूप में रक्षित हैं।
प्रधानंत्री का यह उपक्रम उनके अपने अभ्यास, प्रकृति और प्रवृत्ति का परिचायक तो है ही, यह देश की प्रतिज्ञा, परम्परा और इसकी जीवन-शैली का भारत समेत विश्व के सम्मुख उद्घोष भी है। हम किसी भी कुशलता के लिये ध्यान की बात कहते-सुनते हैं। पढ़ाई करते बच्चों को कहा जाता है-ध्यान से पढ़ो ! कार्य में निर्दोषता के लिये कहा जाता है – ध्यान से करो ! हमारे सारे उत्थान की चेष्टा ध्यान-केंद्रित है। परन्तु , अभी ध्यान-प्रसंग से अनेक लोग विचलित हैं।
भारत की पवित्रतम भूमि, इतिहास और संस्कृति का सुरम्य सिन्धुतट, जगज्जननी के तप से अलौकिक ऊर्जा का केन्द्रस्थल, भारत के उन्नायक स्वामी विवेकानन्द ने जहाँ बैठकर उन्नत भारत का चिन्तन किया..उस तपस्विनी शिला पर देश के प्रधानमंत्री का ध्यान योग सर्वतोभावेन स्वागत योग्य है। तथापि.. एक न्यायाधीश कहलाने वाले अ-न्यायाधीश का वीडियो प्रसारित हो रहा है, जिसमें युक्तिपूर्वक प्रधानमंत्री की आध्यात्मिक यात्रा को रोकने का आग्रह किया गया है। वास्तव में.. सुलभ और सस्ते हुये संवाद माध्यमों की दुर्नियति का एक उदाहरण ये भी है कि ‘नीम-हकीमों’ का बाजार बड़ा होता जा रहा है। यह देखना रोचक है कि प्रधानमंत्री की यात्रा को रोकने और उसे सार्वजनिक न करने के आग्रह हो रहे हैं। प्रधानमंत्री ध्यान करने गये हैं। भारत के प्रधानमंत्री को चुनाव की असाधारण व्यस्तता और मानसिक श्रम के बाद कहाँ जाना चाहिये? मसाज कराने..विदेश में छुट्टी मनाने..या कहीं और? मेरी दृष्टि में यह अद्भुत प्रयोग है, जिसे (सनातन-द्रोह के लीगल पैरोकार) धर्मनिरपेक्षतावादी पचा नहीं पाते। भारत देश अप्रतिम है, जहां सदाचार के सारे सूत्र धर्म से आते हैं और चुनाव आचार-संहिता धर्म का प्रतिषेध करती है। स्वस्त्यस्तु विश्वस्य खलः प्रसीदताम ध्यायन्तु भूतानि शिवं मिथो धिया। मनश्च भद्रं भजतादधोक्षजे आवेश्यतां नो मतिरप्यहैतुकी॥