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सन्यासी योद्धा थे स्वामी दयानंद सरस्वती

योगेश कुमार गोयल
आर्य समाज के संस्थापक के रूप में वंदनीय महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ऐसे देशभक्त, समाज सुधारक, मार्गदशक और आधुनिक भारत के महान चिंतक थे, जिन्होंने न केवल ब्रिटिश सत्ता से जमकर लोहा लिया बल्कि अपने कार्यों से समाज को नई दिशा और ऊर्जा भी प्रदान की। 1857 की क्रांति में उनका अमूल्य योगदान था। स्वामी दयानंद का जन्म गुजरात के टंकारा में 12 फरवरी 1824 को हुआ था। स्वामी दयानंद का बचपन बहुत अच्छा बीता लेकिन उनके जीवन में घटी एक घटना ने उन्हें इस कदर प्रभावित किया कि वे 21 वर्ष की आयु में ही अपना घर बार छोड़कर आत्मिक एवं धार्मिक सत्य की तलाश में निकल पड़े और एक सन्यासी बन गए। जीवन में ज्ञान की तलाश में वे स्वामी विरजानंद से मिले, जिन्हें अपना गुरु मानकर उन्होंने मथुरा में वैदिक तथा योग शास्त्रों के साथ ज्ञान की प्राप्ति की। 1845 से 1869 तक कुल 25 वर्षों की अपनी वैराग्य यात्रा में उन्होंने कई प्रकार के दैविक क्रियाकलापों के बीच विभिन्न प्रकार के योगों का भी गहन अभ्यास किया।
देश के स्वतंत्रता संग्राम में महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी और ‘स्वराज’ का नारा उन्होंने ही दिया था, जिसे बाद में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने अपनाया और ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा दिया। वेदों का प्रचार-प्रसार करने के साथ-साथ उनकी महत्ता लोगों तक पहुंचाने तथा समझाने के लिए उन्होंने देशभर में भ्रमण किया। जीवनपर्यन्त वेदों, उपनिषदों का पाठ करने वाले स्वामी जी ने पूरी दुनिया को इस ज्ञान से लाभान्वित किया। उनकी किताब ‘सत्यार्थ प्रकाश’ आज भी दुनियाभर में अनेक लोगों के लिए मार्गदर्शक साबित हो रही है। वेदों को सर्वोच्च मानने वाले स्वामी दयानन्द ने वेदों का प्रमाण देते हुए हिन्दू समाज में फैली कुरीतियों और अंधविश्वासों का डटकर विरोध किया। जातिवाद, बाल विवाह, सती प्रथा जैसी समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने में उनका योगदान उल्लेखनीय है, इसीलिए उन्हें ‘सन्यासी योद्धा’ भी कहा जाता है। दलित उद्धार तथा स्त्रियों की शिक्षा के लिए भी उन्होंने कई आन्दोलन किए। हिन्दू धर्म के अलावा इस्लाम तथा ईसाई धर्म में फैली बुराईयों और अंधविश्वासों का भी उन्होंने जोरदार खंडन किया। उन्होंने अपना पूरा जीवन मानव कल्याण, धार्मिक कुरीतियों की रोकथाम तथा वैश्विक एकता के प्रति समर्पित कर दिया।
स्वामी दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना मुम्बई के गिरगांव में गुड़ी पड़वा के दिन 10 अप्रैल 1875 को की थी, जिसकी स्थापना का मुख्य उद्देश्य शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति के साथ समूचे विश्व को एक साथ जोड़ना था। आर्य समाज के द्वारा उन्होंने दस मूल्य सिद्धांतों पर चलने की सलाह दी। मूर्ति पूजा के अलावा वे जाति विवाह, महिलाओं के प्रति असमानता की भावना, मांस के सेवन, पशुओं की बलि देने, मंदिरों में चढ़ावा देने इत्यादि के सख्त खिलाफ थे और इसके लिए उन्होंने लोगों में जागरुकता पैदा करने के अथक प्रयास किए। अपने 59 वर्ष के जीवनकाल में महर्षि दयानंद ने न सिर्फ देश में व्याप्त बुराईयों के खिलाफ लोगों को जागृत किया बल्कि अपने वैदिक ज्ञान से नवीन प्रकाश को भी देशभर में फैलाया। हालांकि कई लोगों ने उनका जमकर विरोध भी किया लेकिन स्वामी दयानंद सरस्वती के तार्किक ज्ञान के समक्ष बड़े-बड़े विद्वानों और पंडितों को भी नतमस्तक होना पड़ा। वे अपने जीवन को पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य, सन्यास तथा कर्म सिद्धांत के चार स्तंभों पर खड़ा मानते थे। स्वामी जी हिन्दी भाषा के प्रबल समर्थक थे और उनका मत था कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पूरे देश में एक ही भाषा ‘हिन्दी’ बोली जानी चाहिए। मानव शरीर को नश्वर बताते हुए वह कहते थे कि हमें इस शरीर के जरिये केवल एक अवसर मिला है, स्वयं को साबित करने का कि ‘मनुष्यता’ और ‘आत्मविवेक’ क्या है। वे कहा करते थे कि शक्ति किसी अलौकिकता या चमत्कारिता के प्रदर्शन के लिए नहीं होती।

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