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शरीयत एक्ट : आधी आबादी को समानता से नहीं रख सकते दूर, मुस्िलम बेटियों को न्‍याय का इंतजार

  • डॉ. निवेदिता शर्मा

देश में एक बार फिर शरीयत एक्ट पर बहस शुरू हो गई है। ये चर्चा इन दिनों इसलिए सामने आई क्‍योंकि चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच के सामने केरल निवासी महिला ने अर्जी दाखिल की है। याचिकाकर्ता ने न्‍यायालय को बताया, वह एक अलग तरह की स्िथति में अपने को पाती है। क्‍योंकि भाई को डाउन सिंड्रोम बीमारी होने से वे असहाय हैं, किंतु उनकी देखभाल मेरे द्वारा ही हो रही है। अन्‍य सामाजिक दायित्‍व भी मैं बखूबी निभा ही रही हूँ, किंतु शरीयत कानून ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट 1937’ में पुत्री को बेटे से आधी संपत्ति मिलती है। इस स्िथति में पिता बेटी को एक तिहाई संपत्ति दे सकते हैं, शेष दो तिहाई उन्हें बेटे को देनी होगी। अब यदि भविष्य में भाई के साथ कोई परेशानी होती है, तो फिर भाई के हिस्से वाली संपत्ति पर पिता के भाइयों के परिवार का भी दावा बन जाएगा। उक्‍त महिला यहां अपने लिए न्‍याय चाहती है और हिन्‍दू उत्‍तराधिकार अधिनियम की तरह ही भाई के नहीं होने की स्‍थ‍िति में या होते हुए भी बराबर से अपने लिए पैतृक संपत्‍त‍ि में से हक चाहती है।
यहां कानून की दिक्‍कत यह है कि भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925 की धारा-58 के तहत संपत्ति के बारे में घोषणा की जा सकती है, लेकिन मुस्लिम पर लागू नहीं है। पर्सनल लॉ कहता है कि मुस्लिम शख्स एक तिहाई से ज्यादा संपत्ति वसीयत के जरिये नहीं दे सकता है। इसके साथ ही वर्ममान में यह एक बड़ा प्रश्‍न भी सामने आ खड़ा हुआ है कि मुस्लिम परिवार में पैदा होने के पश्‍चात भी यदि कोई इस्लाम को नहीं मानते तो क्या उन पर भी ये शरीयत एक्ट लागू होगा ? निश्‍चित तौर पर इस प्रश्‍न का उत्‍तर देश के एक बहुत बड़े वर्ग को चाहिए जो पैदा तो इस्‍लाम में हुआ है, किंतु उसकी आस्‍था कहीं भी इस मजहब के प्रति नहीं है।
इसके साथ ही यहां हिन्‍दू उत्‍तराधिकार अधिनियम 1956 के साथ तुलना करने पर एक बात ओर समझ आती है कि पुत्री को समानता का अधिकार देने का नियम भले ही इसके माध्‍यम से भारत में जन्‍में सभी मत, पंथ, विचारधाराओं को एक साथ मिल गया था, किंतु फिर भी पुरुष सत्‍तात्‍मक समाज व्‍यवस्‍था में कुछ रास्‍ते सहूलियतों के ऐसे अवश्‍य थे, जहां एक बहन की तुलना में भाई अधिक लाभ की स्‍थ‍िति में देखा जा रहा था! किंतु इसमें भी समय के साथ सुधार हुआ । 2005 में महिला हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम आया। पहले के कानून में बेटी को पैतृक आवास में रहने का अधिकार था। परंतु अब जन्म से ही बेटी को एक समान उत्तराधिकारी बना दिया गया। जैसे बेटे का हक वैसे ही अब बेटी का भी हक तय कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट तौर पर यह निर्देश दिए हैं कि बिना वसीयत के उत्तराधिकार की स्थिति में भी हिंदू महिला बराबर की हकदार है। लेकिन रास्‍ता फिर भी आसान नहीं था।
वर्ष 2011 में गंडूरी कोटेश्वरम्मा पिता चक्री वेंकटस्वामी का मामला प्रकाश में आया, जिसकी तत्‍कालीन समय में बहुत चर्चा रही । इस केस को आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था यह कहकर कि बेटी और बेटों को बराबर का अधिकार है। फिर उपरोक्त फैसले के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में गंडूरी कोटेश्वरम्मा की तरफ से याचिका दायर की गई। इस याचिका पर अक्टूबर 2011 में न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा और जगदीशसिंह खेहर का निर्णय आया, जिसमें कहा गया, हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 के तहत बेटियां अन्य पुरुष सहोदरों के बराबर का अधिकार रखती हैं। 2005 के अधिनियम की नई धारा 6 में बेटी और बेटों को बराबर का अधिकार है। सिर्फ अधिकार ही नहीं, बराबरी का उत्तरदायित्व भी निभाना पड़ेगा। साथ ही इस निर्णय में यह भी कहा गया कि यदि बेटियों को बेटों के बराबर उत्तराधिकार का अधिकार नहीं दिया जाता है तो यह संविधान के द्वारा दिए गए समानता के मौलिक अधिकारों का भी हनन होगा। बेटियों को पिता की संपत्ति में हक नहीं देना एक ओर समानता के मौलिक अधिकार का हनन है तो दूसरी ओर यह सामाजिक न्याय की भावना के भी विरुद्ध है।

निष्‍कर्ष यह है कि जो हिन्‍दू उत्‍तराधिकार अधिनियम 1956 में लागू हुआ, उसमें भी कुछ खामियां चिन्‍हित की गईं और उन्‍हें समय के साथ 2005 में दूर किया गया। फिर भी जो थोड़े बहुत भ्रम थे, उन्‍हें अक्टूबर 2011 में न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा और जगदीश सिंह खेहर के महिलाओं के हक में आए निर्णय ने दूर कर दिया था। लेकिन यह समानता का अधिकार मुस्‍लिम बेटी या महिला होने पर उसे आज तक नहीं मिल सका है। जिसे वास्‍तविक रूप से पाना उसका संवैधानिक अधिकार है; जैसा कि इस गंडूरी कोटेश्वरम्मा केस में न्‍यायालय के 2011 के निर्णय में प्रत्‍येक महिला को पुरुष के बराबर संपत्‍त‍ि में से अधिकार देना अनिवार्य करार दिया है । यहां केरल निवासी महिला का मामला भी कुछ इसी प्रकार का है, जिसे अपने लिए मुस्‍लिम होने पर संविधानिक के स्‍तर पर न्‍याय चाहिए और जो अपने ऊपर शरीयत कानून “मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट 1937” का दबाव नहीं चाहती है।
यहां हम सभी जानते हैं कि मुस्लिम में शरीयत एक्ट 1937 के तहत उत्तराधिकार संबंधित विवाद का निपटारा होता है। मसलन किसी शख्स की मौत हो जाए तो उसकी संपत्ति में उनके बेटे, बेटी, विधवा और माता पिता सबका हिस्सा वर्णित किया गया है। बेटे से आधी संपत्ति बेटी को देने का प्रावधान है। पति की मौत के बाद विधवा को संपत्ति का छठवां हिस्सा दिया जाता है। अगर बेटियां ही हैं तो बेटियों को तिहाई हिस्सा ही मिलेगा। मुस्लिम शख्स वसीयत भी अपनी संपत्ति का एक तिहाई ही कर सकता है। बाकी दो तिहाई संपत्ति की वसीयत नहीं कर सकता है। वह उसके परिवार के अन्‍य लोगों के हिस्‍से में चली जाती है।
यहां यह आंकड़ा भी देखने और उस पर विचार करने योग्‍य है; वर्तमान में भारत की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्‍या मुसलमानों की है। भले ही अल्‍पसंख्‍यक की स्‍पष्‍ट परिभाषा संविधान में नहीं होने से भारत का मुसलमान आज अल्‍पसंख्‍यक होने का सबसे अधि‍क 97 प्रतिशत से भी ज्‍यादा लाभ लेता है, फिर भी 2024 में भारत में मुस्लिम आबादी अनुमानित 20 करोड़ के लगभग हो चुकी है। आप स्‍वयं विचार करें कि इस बीस करोड़ की आधी आबादी यानी कि 10 करोड़ महिलाएं आज भी समानता के न्‍याय से भारत में इसलिए पूरी तरह से वंचित हैं, क्‍योंकि शरीयत कानून ऐसा करने की इजाजत नहीं देता है ।

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