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दागना कुप्रथा से नहीं इलाज से बनेगा काम!

  • सोनम लववंशी
    अंधविश्वास के नाम पर न जाने कितनी जिंदगियां अब तक कुर्बान हुई होंगी जिसका कोई हिसाब नहीं है। हम चाहे जितने वैज्ञानिक अनुसंधान क्यों न कर लें, बावजूद इसके अंधविश्वास के प्रति लोगों का लगाव कम होने का नाम नहीं ले रहा।
    बीते दिनों मध्यप्रदेश के शहडोल जिले में ‘झाड़-फूंक, अंधविश्वास और दागना’ जैसी कुप्रथा के चलते एक मासूम बच्ची जिन्दगी की जंग लड़ रही है। यह घटना बुढार ब्लॉक के लालपुरा गांव की है जहां 2 महीने की मासूम बच्ची को इलाज के नाम पर गर्म सलाखों से दागा जाता है। बच्ची को निमोनिया की शिकायत थी लेकिन अंधविश्वास की पराकाष्ठा देखिए कि जिस मासूम बच्ची को परिजनों द्वारा हॉस्पिटल ले जाकर उचित इलाज करवाना चाहिए था, वही अंधविश्वास के चलते बच्ची की जान के दुश्मन बन गए और उस मासूम को गर्म सलाखों से दाग दिया जिससे मासूम की जान पर बन आई, गंभीर हालत में बच्ची को मेडिकल कॉलेज में इलाज के लिए भर्ती कराया गया है। ये इस तरह की कोई पहली और आखिरी घटना नहीं है। हाल के दिनों में ही शहडोल जिले के तीन मासूम बच्चों को इलाज के नाम पर दागने से अपनी जान गंवानी पड़ी।
    शहडोल ही नहीं खंडवा जिले में भी बीते दिनों कुपोषण की शिकार एक बच्ची को ओझा द्वारा गर्म सलाखों से दागने की खबर सामने आई। जबकि शहडोल में तो तीन माह की मासूम बच्ची को इलाज के नाम पर गर्म हंसिए से 51 बार दागा गय जिससे बच्ची की जान चली गई। मेडिकल साइंस में भले हमने लाख तरक्की कर ली हो, लेकिन आज भी एक तबका ऐसा है जिसे पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं मयस्सर नहीं हो रही है या यूं कहें कि अंधविश्वास के चलते झाड़ फूंक और दागना प्रथा के जरिए अपना इलाज कर रहे हैं। हालात इतने भयावह हैं कि शहडोल संभाग के तीन जिले शहडोल, उमरिया और अनूपपुर की स्थिति देखें तो पिछले 5 साल में इन जिलों से लगभग 4 हजार बच्चे दागना कुप्रथा का शिकार हुए हैं। जबकि 2 दर्जन बच्चों ने अपनी जान गंवा दी।
    सोचिए जिस बीमार शरीर को उचित स्वास्थ्य सुविधाएं मिलना चाहिए, उसे लोहे के गर्म हंसिए से जलाया जाए तो उसे कितना दर्द कितनी पीड़ा होगी। आश्चर्य की बात है कि इस प्रथा का सबसे ज्यादा शिकार मासूम बच्चे हो रहे हैं। जो विरोध तक करने कि स्थिति में नहीं होते हैं। इस प्रथा के पीछे का अंधविश्वास है कि ऐसा करने से शरीर की अंदरूनी व्याधियां खत्म हो जाती हैं। ये प्रथा ग्रामीण और अतिपिछड़े समुदायों के बीच चलन में है। ख़ासकर दस्त, निमोनिया और पीलिया जैसी बीमारी होने पर शरीर को जलाने की परंपरा है। मेडिकल साइंस में इन बीमारियों का ईलाज है। लेकिन जागरूकता की कमी कहें या फिर ग्रामीण इलाकों में पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव जिसके चलते आज भी ये प्रथाएं जारी है।
    एक तरफ भारत विश्व गुरु बनने की राह में आगे बढ़ रहा है, तो दूसरी तरफ अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में दागना जैसी कुप्रथा को लेकर रिपोर्ट प्रकाशित हो रही है।
    अभी हाल के दिनों में प्रतिष्ठित पत्रिका इंडियन जर्नल ऑफ पीडियाट्रिक्स में मध्यप्रदेश की केस रिपोर्ट प्रकाशित हुई। भले मध्यप्रदेश सरकार राज्य में बेहतरीन स्वास्थ्य सुविधाओं का दावा करती है। लेकिन राज्य के स्वास्थ्य महकमे को लेकर रुरल हेल्थ स्टैटिक्स 2021-22 की रिपोर्ट बताती है प्रदेश के अस्पतालों में डॉक्टरों की भारी कमी है। यहां डॉक्टरों के 95 फ़ीसदी पद खाली हैं। जब पर्याप्त डॉक्टर ही नहीं है तो फिर परिजन कहीं तो इलाज करवाने जाएंगे ही। दागना जैसी कुप्रथा को भारतीय दंड संहिता- 324 के तहत एक आपराधिक कृत्य माना है। इसे गंभीर बाल शोषण का भी एक रूप माना है। इस अमानवीय प्रथा को बढ़ावा देने वाले अपराधियों को कड़ी सजा का प्रावधान भी है। हालाकि ऐसे मामले कम ही उजागर हो पाते है। देखा जाए तो आज भी हमारे देश में न जाने कितनी कुप्रथाएं है जो ग्रामीण क्षेत्रों में अपने पैर जमाए हुए है। ये प्रथाएं कभी राजनीतिक मुद्दा नहीं बनती और न ही कभी विपक्ष ऐसे विषयों को लेकर अपनी आवाज बुलंद करता है। आम जनमानस भी ऐसे विषयों को तवज्जो नहीं देता, उसके लिए आज भी वंचित और हाशिए पर खड़े समाज के विषय बात करने लायक नहीं लगते।

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