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सर्वमनोरथ, सर्वसिद्धि प्रदात्री महाविद्या छिन्नमस्ता

  • अशोक “प्रवृद्ध”
    तीनों लोकों को उत्पन्न करने, सर्वमनोरथों को सिद्ध करने और कलियुग के समस्त पापों को हरने वाली देवी छिन्नमस्ता की आराधना- उपासना सम्पूर्ण अर्थों की सिद्धि के निमित्त बैशाख मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को किये जाने की पौराणिक परिपाटी है। दस महाविद्याओं में से पंचम स्थान पर स्थित देवी छिन्नमस्ता प्रवृति के अनुसार उग्र कोटि अथात स्वरूप की देवी मानी गई हैं। इन्हें छिन्नमस्ता, छिन्नमस्तिका, छिन्नमस्तिष्का, प्रचण्ड चण्डिका आदि नामों से जाना जाता है। सकल चिंताओं का अंत और मन में इच्छित, चिन्तित प्रत्येक मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली देवी के रूप में मान्यता होने के कारण छिन्नमस्ता महाविद्या को चिंतपूरनी (चिंतपूर्णी) भी कहा जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार संसार की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश करने के निमित्त ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र त्रिदेवों को देवी छिन्नमस्ता ही धारण करतीं हैं। देवता इनके खिले कमल के समान दोनों चरणों का सदा भजन करते रहते हैं। महापुण्य को देने वाला ब्रह्मा के मुख से प्रथम बार स्तोत्रित माता छिन्नमस्ता स्तोत्र सम्पूर्ण सिद्धियों का प्रदाता, बडे-बड़े पातक और उपपातकों का नाश करने वाला माना गया है। प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में दैनिक नित्यकर्मों से निवृत होकर छिन्नमस्ता देवी के पूजा काल में छिन्नमस्ता स्तोत्र के पाठ से मनुष्य की समस्त मनोकामनाएं शीघ्र पूर्ण होती है। धन, धान्य, पुत्र, पौत्र, घोड़ा, हाथी और पृथ्वी प्राप्त कर अष्ट सिद्धि और नव निधियों को भी प्राप्त कर लेता है। व्यार्घ चर्म द्वारा स्वजंघा रंजिता, अत्यन्त मनोहर आकृति, अत्यधिक लम्बायमान उदर व छोटी आकृति वाली सम्पूर्ण शरीर अनिर्वचनीय त्रिवली से शोभित, मुक्ता से विभूषित, हाथ में कुन्दवत श्वेत वर्ण विचित्र कतरनी शस्त्र धारिता देवी छिन्नमस्ता के द्वारा भक्तों के ऊपर सदा दया दृष्टि बने रहने के कारण महामाया के इस रूप को बारम्बार नमस्कार करने का पौराणिक व तान्त्रिकीय विधान है। महाविद्या छिन्नमस्ता से सम्बन्धित कथाएं मार्कण्डेय पुराण के देवी सप्तशती में और शिव पुराण में अंकित प्राप्य हैं। पौराणिक व तांत्रिक ग्रन्थों के अनुसार छिन्नमस्ता ने ही चंडी स्वरूप धारण करके असुरों का संहार किया था। देवी छिन्नमस्ता प्रत्यालीढपदा हैं, अर्थात युद्ध के लिए सदैव तत्पर एक चरण आगे और एक चरण पीछे करके वीर भेष में छिन्नशिर और खंग धारण किये हुए खड़ी हैं। छिन्नमस्ता नग्न हैं और अपने कटे हुए गले से निकलती हुई शोणित धारा का पान करती हैं।

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