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- बलबीर पुंज
सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं-यह पंक्तियां हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला आत्महत्या मामले और इससे संबंधित नैरेटिव में उपयुक्त है। जैसे ही इस पर तेलंगाना पुलिस की क्लोजर रिपोर्ट मीडिया की सुर्खियां बनी, वैसे ही एक और झूठ ने दम तोड़ दिया। 26 वर्षीय पीएचडी छात्र रोहित ने 17 जनवरी 2016 को विश्वविद्यालय छात्रावास के कमरे में आत्महत्या कर ली थी। तब वामपंथी, स्वयंभू सेकुलरवादी, इंजीलवादी और जिहादी तत्वों ने मिलकर नैरेटिव बनाते हुए इसे ‘दलित बनाम मोदी सरकार’ बनाकर रोहित की दुर्भाग्यपूर्ण मौत को भाजपा, आरएसएस परिवार और एबीवीपी के संयुक्त उत्पीड़न का परिणाम बताकर प्रस्तुत कर दिया। इसके बाद देशभर में विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए थे। तब कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी ने इसे संसद के भीतर-बाहर ‘दलित हत्या’ कहकर संबोधित किया। सच कांग्रेस शासित तेलंगाना की पुलिस द्वारा दायर क्लोजर रिपोर्ट से स्पष्ट है।
बकौल रिपोर्ट, रोहित वेमुला ने स्वयं को अनुसूचित-जाति वर्ग (दलित) से बताया था। पंरतु वह इस वर्ग से नहीं था। रोहित को पता था कि उसकी मां ने उसे दलित का प्रमाणपत्र दिलाया था। चूंकि रोहित ने इसके माध्यम से अपनी शैक्षणिक उपलब्धियां प्राप्त की थीं, इसलिए उसे डर था कि यदि उसकी जाति की सच्चाई बाहर आ गई, तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई हो सकती है। इसके अतिरिक्त, रिपोर्ट में कहा गया है कि सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद यह स्थापित करने हेतु कोई साक्ष्य नहीं मिला कि आरोपियों ने किसी भी तरह रोहित को आत्महत्या के लिए प्रेरित किया है। उस समय भाजपा के तत्कालीन सिकंदराबाद सांसद और वर्तमान में हरियाणा के राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय आदि राजनीतिक हस्तियों को कटघरे में खड़ा कर दिया गया था।
वास्तव में, रोहित की मौत एक मानवीय त्रासदी थी। परंतु भारत-सनातन विरोधियों को इसमें एक पुराने औपनिवेशिक नैरेटिव ‘दलित बनाम शेष हिंदू समाज’ को पुनर्स्थापित करने का सुअवसर दिखा। अपनी मौत की सच्चाई को रोहित ने जिस सुसाइड नोट में लिख छोड़ा था, उसे तब सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा ही नहीं बनने दिया जा रहा था। उस चिट्ठी में रोहित ने आत्महत्या के लिए किसी को दोषी नहीं ठहराने की बात लिखी थी। उसने लिखा था, ‘मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है। मुझे स्वयं से ही हमेशा परेशानी रही है… मैं दानव बन गया हूं।’ यही नहीं, इसी चिट्ठी में एक पैराग्राफ लिखकर काटा गया था, जिसमें रोहित ने अपने संगठन ‘अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन’ से मोहभंग होने की बात लिखी थी। यह अब भी एक रहस्य है कि उन पंक्तियों को किसने काटा था? रोहित की आत्महत्या से जुड़े इन महत्वपूर्ण तथ्यों की अवहेलना कर झूठ का प्रचार-प्रसार किया गया। यह दिलचस्प है कि इस मामले में आठ वर्ष पश्चात तेलंगाना पुलिस ने स्थानीय अदालत में क्लोजर रिपोर्ट 21 मार्च को दाखिल की थी, जिसका रहस्योद्घाटन 3 मई को हुआ।
यह कोई पहली बार नहीं है। रोहित से पहले भी और अब भी झूठ या अर्धसत्य से विकृत नैरेटिव बनाया जाता है। इस दुराचार में छद्म-सेकुलरवादियों, वामपंथियों, जिहादियों और इंजीलवादियों के कुनबे का कोई मुकाबला नहीं। इसी समूह ने 23 सितंबर 1998 को मध्यप्रदेश के झाबुआ में चार ननों से सामूहिक बलात्कार के मामले को सांप्रदायिक बना दिया था। तब प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने बिना किसी साक्ष्य के इसका आरोप हिंदूवादी संगठनों पर मढ़ दिया। जांच पश्चात मामले में अदालत द्वारा दोषी वे स्थानीय आदिवासी पाए गए, जिन्हें चर्च-वामपंथी हिंदू तक नहीं मानते।
गुजरात स्थित गोधरा रेलवे स्टेशन के निकट 27 फरवरी 2002 को जिहादियों ने ट्रेन के एक डिब्बे में 59 कारसेवकों को जिंदा जला दिया था। उनका ‘अपराध’ केवल यह था कि वे अयोध्या की तीर्थयात्रा से लौटते समय ‘जय श्रीराम’ का नारा लगा रहे थे। तब वर्ष 2004-05 में रेलमंत्री रहते हुए राजद मुखिया लालू प्रसाद यादव ने जांच-समिति का गठन करके यह स्थापित करने का प्रयास किया कि गोधरा कांड मजहबी घृणा से प्रेरित न होकर केवल हादसा मात्र था। बाद में समिति की इस रिपोर्ट को गुजरात उच्च-न्यायालय ने निरस्त कर दिया, तो कालांतर में अदालत ने मामले में हाजी बिल्ला, रज्जाक कुरकुर सहित 31 को दोषी ठहरा दिया। वर्ष 2002 का गुजरात दंगा, जो कि गोधरा कालंड की प्रतिक्रिया थी- उस पर दो दशक बाद भी अर्धसत्य और सफेद झूठ के आधार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि को तिरस्कृत करने का प्रयास किया जाता है। इसी विषय पर बीबीसी की एकपक्षीय रिपोर्ट- इसका प्रमाण है।
भाजपा से निष्कासित नेत्री नूपुर शर्मा मामले में क्या हुआ था? पहले कई मिनटों की टीवी बहस में से नूपुर की कुछ सेकंड की संपादित वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल किया। फिर उसमें जो कुछ नूपुर ने कहा, उसकी प्रामाणिकता पर वाद-विवाद किए बिना नूपुर को ‘ईशनिंदा’ का ‘वैश्विक अपराधी’ बना दिया गया। जिस विद्वेषपूर्ण नैरेटिव से मजहबी कट्टरता की नस को दबा गया, उसने न केवल नूपुर की अभिव्यक्ति का समर्थन कर रहे कन्हैयालाल और उमेश की जान ले ली, बल्कि नूपुर के प्राणों पर भी आजीवन संकट डाल दिया।
मनगढ़ंत ‘हिंदू/भगवा आतंकवाद’ भी झूठ के इसी कारखाने का एक उत्पाद है। इस मिथक को कांग्रेस नीत संप्रगकाल (2004-14) में उछाला गया, जिसकी जड़े 1993 के मुंबई श्रृंखलाबद्ध (12) बम धमाके में मिलती है, जिसमें 257 निरपराध मारे गए थे। तब महाराष्ट्र के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री शरद पवार ने आतंकियों की मजहबी पहचान और उद्देश्य से ध्यान भटकाने हेतु झूठ गढ़ दिया कि एक धमाका मस्जिद के पास भी हुआ था। यह प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से हिंदुओं को आतंकवाद से जोड़ने का प्रयास था। इसी चिंतन को संप्रगकाल में पी.चिंदबरम, सुशील कुमार शिंदे और दिग्विजय सिंह ने आगे बढ़ाया। ऐसे ढेरों उदाहरण है। अखलाक-जुनैद आदि हत्याकांड, भीमा-कोरेगांव हिंसा, सीएए-विरोधी प्रदर्शन, कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन और कर्नाटक हिजाब प्रकरण- इसके प्रमाण है।
इस जहरीले समूह के एजेंडे को पहचानने की आवश्यकता है। इनके शस्त्रागार में बंदूक-गोलाबारुद नहीं, बलिक झूठी-फर्जी सूचना, दुष्प्रचार और घृणा से प्रेरित चिंतन है। रोहित वेमुला मामले में हुआ हालिया खुलासा, उनके भारत-सनातन विरोधी उपक्रम को फिर से बेनकाब करता है।