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गठबंधन बनाम क्षेत्रीय दलों की राजनीति में उभार

  • प्रमोद भार्गव
    जिस तरह से शक्ति और सत्ता राजनीति के आधारभूत सिद्धांत माने जाते हैं,उसी तरह राजनीति से यह मान्यता भी जुड़ी है कि राजनीति में वही आगे बढ़ते हैं,जो अवसर का लाभ उठाकर उसे भुनाते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के लिए गठबंधन की राजनीति के बीते दस साल में लगभग यही पर्याय रहे हैं। बीते सालों में महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा-शिवसेना, अकाली दल और इनेलो से दशकों से चले आ रहे गठबंधनों का टूटना इन्हीं आशयों के परिणाम थे। लेकिन अब आए चुनाव परिणामों ने अकेली भाजपा को 240 सीटों पर सिमटा दिया। भाजपा स्पष्ट बहुमत से 32 सीटें पीछे रह गई। हालांकि उसके नेतृत्व वाले राजग गठबंधन के पास 291 सीटें हैं अतएव राजग बहुमत में है। लेकिन भाजपा खुद 272 सीटें लाई होती तो उसकी पूर्व की तरह ठसक बनी रहती। बावजूद नरेंद्र मोदी नेहरू के बाद ऐसे अकेले प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें मतदाता ने लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बने रहने का जनादेश दिया है। यह करिश्मा 62 साल बाद हुआ है। लेकिन अब पेंडुलम की तरह लटकी भाजपा को 16 सीटें जीतने वाले चंद्रबाबू नायडू की पार्टी टीडीपी और 16 सीटें जीतने वाली नीतीश कुमार की जदयू से पूरे पांच साल वैसाखियों का सहारा लेना पड़ेगा। ये दोनों दल किंगमेकर की भूमिका में आ गए हैं। इन और अन्य सहयोगी दलों के साथ भाजपा तीसरी बार केंद्र में सत्तारूढ़ होने जा रही है।
    शक्ति अर्थ की हो या राजनीतिक सत्ता की, जब वह उम्मीद से ज्यादा हाथ लग जाती है तो महत्वाकांक्षाएं बेलगाम होने लगती हैं। लिहाजा 2014 और 2019 की अप्रत्याशित जीत के बाद भाजपा की जहां महत्वाकांक्षा बढ़ी,वहीं आत्मविश्वास प्रबल हुआ। नतीजतन नरेंद्र-अमित की युगल जोड़ी ने भाजपा को गठबंधन से मुक्ति के पंखों पर सवार कर दिया था। भाजपा चाहने लगी थी कि यदि राजनीतिक पहुंच वाले राज्य में उसकी अकेले दल के रूप में पकड़ मजबूत होगी तो वह कालांतर में गठबंधन की लाचारी से मुक्त होती चली जाएगी। इसी धारणा के चलते उसने अपने सबसे पुराने सहयोगी शिवसेना और अकाली दल से नाता तोड़ लिया था। दरअसल भाजपा की जो राजनीति, संस्कृति और कार्यशैली है,कमोवेश वही शिवसेना की है। दोनों उग्र हिंदुत्व और राष्ट्रीय सांस्कृतिक एकात्मवाद के अनुयायी हैं। लेकिन भाजपा गठबंधन में सहयोगी रहे जिस राज्य में भाजपा को सबसे बड़ा झटका लगा है, उसमें महाराष्ट्र प्रमुख है। 2014 और 2019 में महाराष्ट्र की 48 सीटों में से भाजपा-शिवसेना को 41 सीटें मिली थीं। 2019 के विधानसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत के बावजूद मुख्यमंत्री पद को लेकर दोनों दलों में बिगड़ गई। इसी के साथ राज्य की राजनीति में बदलाव आ गया। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस-एनसीपी के साथ मिकर सरकार बनाई तो भाजपा ने शिवसेना में विभाजन कर सरकार गिरा दी और एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनवा दिया। यही नहीं एकनाथ शिंदे की ही शिवसेना को असली होने का दर्जा मिल गया। साथ ही शरद पवार की एनसीपी के भी दो टुकड़े कर दिए। भतीजे अजीत पवार ने चाचा की पार्टी छीन ली। हालांकि यह कदम उल्टा पड़ा। उद्धव और शरद पवार ने मराठी अस्मिता को मुद्दा बनाया और मतदाता की सहानुभूति बटोरने में सफल रहे। अब यहां सबसे ज्यादा 13 सीटें जीतकर कांग्रेस बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। शिवसेना-उद्धव को 9, एनसीपी-शरद को 7 सीटें मिली हैं। भाजपा को दस सीटों पर संतोष करना पड़ा है।
    आंध्र प्रदेश में भाजपा के सहयोगी तेलगु देशम पार्टी के प्रमुख चंद्रबाबू नायडू ने 16 सीटों पर जीत हासिल की है। आंध्र प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में भी नायडू को सरकार बनाने के लिए स्पष्ट बहुमत मिल गया है। नायडू ने कह भी दिया है कि आंध्रप्रदेश की जनता ने राजग के साथ हमारे गठबंधन पर भरोसा करके हमें बड़ी जीत दिलाई है। हम राजग के साथ है। साफ है, नायडू केंद्र सरकार में अपने सांसदों को मंत्री बनाकर भाजपा को ताकत देते रहेंगे। इधर बिहार में राजग गठबंधन ने बड़ी संख्या में सीटें हासिल करके लालू और तेजस्वी यादव को आईना दिखा दिया है। यहां चालीस सीटों में से 12 जदयू, 12 भाजपा, और पांच लोजपा ने जीती हैं। अतएव कहा जा सकता है कि चुनाव से पहले नीतीश कुमार के जदयू को साथ लाकर बड़े नुकसान से बच गई। बिहार के इन परिणामों से गठबंधन की महिमा को स्थापित किया है। जदयू नेता केसी त्यागी का कहना है कि चुनाव पूर्व राजग से गठबंधन को लेकर हमारी जो प्रतिबद्धताएं हैं, वे बनी रहेंगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नीतीश और नायडू को अच्छी जीत के लिए बधाई दे दी है।
    भाजपा स्पष्ट बहुमत में जरूर नहीं है, लेकिन उसने अपनी पार्टी का विस्तार करते हुए ओडिशा में जबरदस्त दस्तक दी है। नवीन पटनायक के 24 साल से चले आ रहे राज को खत्म करके भाजपा ने जता दिया है कि वे पार्टी के देशव्यापी विस्तार के लिए संघर्ष करती रहेंगी। ओडिशा में भाजपा को दोहरी खुशी मिली है। यहां उसने लोकसभा की 21 सीटों में से 19 सीटें जीतकर अप्रत्याशित ढंग से अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा दी है। दूसरी तरफ भाजपा को यहां हुए विधानसभा चुनाव में भी स्पष्ट बहुमत मिल गया है। विधानसभा की कुल 147 सीटों में से भाजपा ने 78 सीटों पर विजय हासिल की है। नवीन पटनायक के बीजू जनता दल को 51 सीटों पर संतोष करना पड़ा है। भाजपा की इस बड़ी जीत में यहां की मूल निवासी द्रोपदी मुर्मु को राष्ट्रपति बनाया जाना भी रहा है। नवीन पटनायक उम्रदराज होते जा रहे हैं और उन्होंने अपने दल के किसी नेता को अपने समकक्ष नहीं बनाने की बड़ी भूल की है। अतएव आगे यह पार्टी कितना चल पाएगी, कहना मुश्किल है।
    क्षेत्रीय क्षत्रपों में सबसे बड़ी ताकत के रूप में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी आई है। उसने 80 सीटों में से 37 सीटें जीतकर अपनी मजबूत आमद लोकसभा में दर्ज करा दी है। यहां से अब बसपा के सूपड़ा साफ होने का लाभ भी सपा को मिला है। राम मंदिर निर्माण के बावजूद भाजपा के लिए यहां से मिलीं अप्रत्याशित पराजय ने यह तय कर दिया है कि भारत में क्षेत्रीयता और जातीयता अभी भी चुनाव में ईश्वर से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। हालांकि भाजपा ने यहां से 33 और उसके सहयोगी दलों ने छह सीटें जीती हैं। भाजपा को यहां नुकसान मुस्लिम बहुल प्रदेश होने के कारण भी उठाना पड़ा है। जबकि समाजवादी पार्टी ने गिनती के चार मुस्लिम मैदान में उतारे थे, जिनमें से तीन ने जीत हासिल की है। सपा की इतनी बड़ी जीत का कारण मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट नहीं देना भी रहा है। क्योंकि यदि मुस्लिमों को टिकट दिए होते तो उनका जीतना हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के चलते मुश्किल था। बहरहाल क्षेत्रीय क्षत्रपों ने रणनीतिक रूप से एक होकर जता दिया है कि क्षेत्रीयता और जातियता की राजनीति से भारत अभी मुक्त नहीं होने जा रहा है। राहुल गांधी इसे संविधान बदलने और अनुसूचित जातियों व जनजातियों को आरक्षण से बाहर करने की धार देकर भाजपा नेतृत्व वाले राजग गठबंधन की इकतरफा जीत में दीवार बनकर खड़े हो गए। गोया, अब भाजपा एक देश एक चुनाव, जनसंख्या नियंत्रण और समान नागरिक संहिता जैसे कानून नहीं बना पाई।

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