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रत्नाकर से बने वाल्मीकि बोध की प्रासंगिकता

  • देवेन्द्र कुमार रावत
    वर्तमान में भ्रष्टाचार पर जो चर्चा का विषय है इसी संदर्भ में कथानुसार देवर्षि नारद जी ने रत्नाकर डाकू द्वारा बंदी बनाये जाने पर रत्नाकर से पूछा कि तुम मेरे जैसे व्यक्तियों से लूटपाट करके जो धन प्राप्त करते हो, यह धन परिश्रम से भी कमाया जा सकता है। इस पर रत्नाकर डाकू ने कहा कि मैं इस धन से अपने परिवार का पालन पोषण करता हूँ। तब नारदजी ने कहा कि क्या तुमने कभी अपने सभी परिजनों से पूछा है कि तुम सब मेरे द्वारा लाये गये धन से ही अपना पेट भरते हो तो क्या मेरे इस पाप में तुम शामिल हो कि नहीं? कहते है रत्नाकर यह सब पूछने अपने घर गये और सभी की उपस्थिति में जब सबसे पूछा तो सभी ने उत्तर दिया कि नहीं। तब रत्नाकर को यह अपराध बोध हुआ कि मैं क्यों यह पापकर्म कर रहा हूँ और इसी आत्मबोध से वे रत्नाकर डाकू से महर्षि वाल्मीकि बने। ठीक वैसे ही भ्रष्टाचार से प्राप्त धन की भी यही स्थिति है तब आज के भ्रष्टाचारियों को सुधारने के लिये भी दण्ड व्यवस्था के अलावा क्या और कोई मार्ग है? क्या हम इन्हें भी कर्मफल का बोध कराकर न केवल स्वयं बल्कि राष्ट्रहित के लिए यह ज्ञान करा जा सकता है क्योंकि हम सभी तो प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुप से डाकू रत्नाकर की ही तरह धन प्राप्ति में लगे हुए हैं, यह बात अलग है कि हमारे द्वारा निर्बल गरीबों के षोषण का तरीका रत्नाकर डाकू से अलग है।
    इस संदर्भ में वाल्मीकि बोध शीर्षक से मेरे काव्य संग्रह ‘‘समय के साक्ष्य’’ की कविता का आधुनिक संदर्भ में यहाँ उद्धृत करना आवश्यक समझता हूँ, जो हम सबसे प्रश्न करती है कविता है-
    हम-तुम जो यह पहिन रहे हैं हार।
    स्वागत में सजोये गये हैं,
    जो वन्दनवार।
    प्लेटो में परोसे गये है जो काजू
    और हमने यह सब
    खुशी, खुशी किया है स्वीकार।
    दरअसल ये अनेक लोगों के
    हिस्से की सूखी रोटियाँ का।
    खूबसूरत रूपान्तरण है।
    या यूँ कहे कि
    ये गरीब लोगों की भूख है, प्यास है
    किन्हीं बूढ़ी आंखों की आस है
    यह सब भले ही हमारे हाथों नहीं हुआ है
    पर हमारे नाम पर हुआ ये हस्तांतरण है।
    पर पहिले ये आत्मबोध कराने की क्षमता हम सब में और विशेष तौर से हमारे शीर्षस्थ अधिकारियों,जनप्रतिनिधियों में होना चाहिये । तभी इसका प्रभाव भ्रष्टाचारियों पर पड़ेगा।
    अन्यथा ‘‘चोर-चोर मौसेरे भाई’’ की कहावत चरितार्थ होती रही है, और होती रहेगी।
    इसी संदर्भ में हमारी संस्कृति में तो साध्य और साधन की पवित्रता पर बहुत बल दिया गया है। तुलसी कहते है कि यदि हम इसके विपरीत चल कर धन प्राप्ति करते है तो हम बिना परिश्रम किये पराये धन की प्राप्ति से तो हम ‘‘ते नर पाँवर पाममय देह धरें मनुजाद’’ अर्थात हम मनुष्य शरीर के होते हुए भी राक्षस ही है। इसलिए हमारे यहाँ परिश्रम से होने वाले लाभ को लोभ की श्रेणी में नहीं रखा गया है। तो वहीं धन की असीम लालसा से उत्पन्न लोभ को पाप का मूल कहा गया है। वर्तमान में व्याप्त भ्रष्टाचार इसी लालसा लोभ का ही प्रतिफल है। तुलसी इसी लोभ के बारे में कहते है ‘‘लोभ की इच्छा दंभ बल’’ अर्थात लाभ जब लोभ के रूप में परिवर्तित हो जाता है तो इसके मूल में लोभ की इच्छा और दंभ का ही बल होता है। हमारी असंयमित इच्छाएं ही हमें इस ओर ले जाती है। जिसका परिणाम न केवल व्यक्ति बल्कि समृष्टि के लिए भी दुःखदायी सिद्ध होता रहा है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने लिखा है कि इस धरा में सभी की इच्छाओं की पूर्ति की असीमित क्षमता है लेकिन ये एक असीमित इच्छा वाले एक व्यक्ति के लिए भी अपर्याप्त है। क्योंकि लोभी व्यक्ति अंततः अपना हित सिद्ध करते-करते जब परद्रोही बन ही जाता है। तब वह किसी को भी सुख शांति से नहीं रहने देता। इसी भाव को आध्यात्मिक संदर्भ में तुलसी ने भी हमारी पृथ्वी के माध्यम से भी व्यक्त किया है-‘गिरिसर सिंधु भार नहिं मोही जस मोहिं गरूअ एक परद्रोही’’
    अर्थात पृथ्वी कहती है कि मुझे पर्वतों, नदियों और समुद्रों का बोझ इतना भारी नहीं जान पड़ता जितना भारी मुझे एक परद्रोही जो अपने लाभ के लिये लोभ में आकर दूसरों का अनिष्ट करने वाला लगता है। तुलसी ने यह कहकर पृथ्वी के माध्यम से संपूर्ण विश्व के हितार्थ ही अपनी वेदना व्यक्त की है। आज पृथ्वी इसी लोभ से उत्पन्न हमारी असंयमित कामनाओं के कारण ही आवश्यकता से अधिक उत्खनन की शिकार हुई है। पर्यावरण प्रदूषण इसी कारण दिनोदिंन बढ़ रहा है। पृथ्वी के बढ़ते हुए तापमान से ही ऋ तुक्रम गडबड़ा गया है। अब वर्षा या तो अधिक होती है या बहुत ही अल्प, ये दोनों ही स्थितियाँ न केवल मनुष्य बल्कि समस्त प्राणियों के लिए घातक है। अतः स्पष्ट है कि हमारी असयंमित कामनाएं ही हमें सामूहिक विनाश की ओर ले जा रही है। इसलिए हमारे धर्मशास्त्रों में आध्यात्मिक दृष्टि से संतोषी को सदा सुखी कहा गया है। पर हमने संतोष का सीमित अर्थ लिया है और इस अर्थ में हमारे अनुसंधान की दिशा बदल दी है। इसके दुष्परिणाम सामने है कि पृथ्वी के धरातल और पर्यावरण पर अब विनाशकारी प्रभाव दिखने लगे हैं। इस संदर्भ मे कोरोना काल में संक्रमण से आये समय के गति चक्र बाधित होने का एक दूसरा पक्ष भी सामने आया था कि पर्यावरण प्रदूषण घट गया था। मानो प्रकृति ने हमें एक प्रयोगशाला के परिणामों की तरह समझाने की कोशिश की थी कि विकास और विनाश के बीच संयमित जीवनशैली के सूत्रों को जाने समझे और उसका पालन भी करे। तभी हम सामूहिक विनाश से बच सकते हैं। दूसरे हमें यह बोध भी कराया कि हम लाभ को लोभ में न बदलकर स्वयं अपने महाविनाश से बच सकते है। इसी संदर्भ में त्रेतायुग की लंका के दिनोदिन बढ़ते वैभव वर्णन में यही संकेत मिलता है वर्णन आया है कि ‘नित नूतन सब बाढ़त जाई जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई’ अर्थात भौतिक सुख ऐसे बढ़ रहे थे जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता जाता है। जिसका अंततः विनाश ही हुआ। दूसरे यह लोभ जब हमें लोभी बना देता है तब ऐसा व्यक्ति का भले ही विनाश हो जाये पर विनाश होने तक वह किसी की नहीं सुनता। सुन्दरकांड में वर्णन आया है ‘अति लोभी सन विरति वखानी अर्थात लोभी से वैराग्य की चर्चा करना व्यर्थ ही है। अतः स्पष्ट है कि तब ऐसे व्यक्तियों से ही संसार में भय, हिंसा और अशांति व्याप्त हो जाया करती है। इसलिए आवश्यकता है कि हम लोभ से होने वाली हानि को समझे। तभी हम इसे जड़ से मिटा पाऐगे। जिसमें न केवल प्रत्येक नागरिक, बल्कि सत्तापक्ष के साथ प्रतिपक्ष भी पुरानों भूलों को भूलकर भ्रष्टाचार के विरूद्ध एकमत हों वर्तमान में ऐसी समझ की आवश्यकता है।

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