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लोकतंत्र के नए महायज्ञ की तैयारी और संविधान की जिम्मेदारियां

  • आलोक मेहता
    लोकतंत्र में जनता को एक बार फिर केंद्र में सरकार के लिए लोक सभा में वोटिंग के लिए तैयार होना है। गणतंत्र की गौरव गाथा की जयकार करते हुए भारतीय संविधान निर्माताओं के लक्ष्यों और भावनाओं का स्मरण भी होना चाहिए। संविधान को अंतिम रुप दिए जाने के बाद 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा के अध्यक्ष डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने कहा था- ‘यदि चुनकर आए लोग योग्य, चरित्रवान और ईमानदार हुए तो वे दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्तम बना देंगे। यदि उनमें इन गुणों का अभाव रहा तो संविधान देश की कोई मदद नहीं कर सकता। आखिरकार संविधान एक मशीन की तरह निर्जीव है। इसमें प्राणों का संचार उन व्यक्तियों पर निर्भर है, जो इस पर नियंत्रण कर चलाते हैं। देश का हित सर्वोपरी रख ईमानदार लोग ही यह काम कर सकेंगे।’
    गणतंत्र का उल्लेख भारतीय सन्दर्भ में रामराज्य के रुप में होता है। आदर्श गणतंत्र,जहां सबको आगे बढ़ने और स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार हो। गणतंत्र जिसमें पांच परमेश्वर है। गणतंत्र,जहां सुदूर गांवों में संघर्षरत गरीब व्यक्ति न्याय पाने की अपेक्षा रख सकता हो। पिछले 75 वर्षों में भारतीय गणतंत्र फैला फूला है। बड़े-बड़े राजनीतिक तूफानों को झेलने के बावजूद उसकी जड़ें कमजोर नहीं हुई है। दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों के मुकाबले भारत की राजनीतिक शक्ति में बढ़ोतरी हुई है। सामान्य आंतरिक आलोचना-विरोध भले ही हो, अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, जापान जैसे सम्पन्न शक्तिशाली देश भारत के लोकतंत्र और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की सराहना कर अंतर्राष्ट्रीय शांति तथा विकास में महत्वपूर्ण भूमिका मान रहे हैं। चीन तक ने भारत की आर्थिक शक्ति को स्वीकारा है। इसका एक बड़ा कारण भारत में सरकार का स्थायित्व और बढ़ती जागरुकता, सामाजिक, आर्थिक, सामरिक ताकत है।
    संसद को लोकतंत्र के मंदिर की संज्ञा दी जाती है। 1952 से 2023 तक की संसद में सांसदों की अहम्ा् भूमिका से सामाजिक आर्थिक बदलाव हुए हैं। इसलिए संसद के हंगामों, सत्ता के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार के आरोपों के आधार पर संसद का अवमूल्यन उचित नहीं है। असली खतरा बाहरी आतंकी या माओवादी नक्सल संगठनों और कट्टरपंथी संगठनों से है। संविधान प्रदत्त अधिकारों की दुहाई और न्याय व्यवस्था की कमजोरी का लाभ उठाकर ऐसे तत्व समाज में हिंसा और अराजकता फैलाने की कोशिश करते हैं। इससे भी महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि अमेरिका या यूरोपीय देशों के लोकतांत्रिक अधिकारों से तुलना करने और उनकी अर्थ व्यवस्था से प्रतियोगिता करने वाले नेता और संगठन संविधान पर अमल के लिए आवश्यक कर्तव्यों के पालन और उनके लिए व्यापक जागरूकता के साथ निभाने के लिए कितने प्रयास करते हैं? संसद द्वारा पारित कानूनों को नहीं स्वीकारने की घोषणा करने में भी उन्हें कोई हिचक नहीं होती। कांग्रेस सहित कई दलों के अपने पार्टी संविधान में सादगीपूर्ण जीवन, जातिवाद से बचने की अनिवार्यता लिखी है, लेकिन कितने नेता उनका पालन कर रहे हैं? कर्तव्य नहीं स्वीकारने की पराकाष्ठा यह है कि संविधान की शपथ लिए हुए कुछ नेता सड़क पर धरना- आंदोलन और संसद द्वारा पारित कानून के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के जरिये जनमत संग्रह तक की शर्मनाक मांग करने लगे हैं? दुनिया के किस देश में राज्यों में बैठे सत्ताधारी क्या इस हद तक अपनी ही राष्ट्रीय सरकार और नीतियों का विरोध करते हैं? कभी अपनी सेना को पेंशन के लिए भड़काते हैं, तो कभी सीमा पर उनकी क्षमता पर संदेह कर चीन के भारतीय सीमा में घुसी होने के आरोप लगते हैं। जब नेता स्वयं अधिकारियों, शिक्षकों, डॉक्टरों, इंजीनियरों को अपने कर्तव्यों से हटकर गलत काम करवाते रहेंगे तो अप्रत्यक्ष रूप से संविधान के तहत सामान्य नागरिकों के हितों को नुकसान नहीं पहुंचेगा?
    लोकतंत्र में राजनीतिक शक्ति की धुरी है-राजनीतिक पार्टियां। हाल के वर्षों में निहित स्वार्थों ने कुछ पार्टियों की मीठी खीर में खटास ला दी है। गणतंत्र में चुनाव का महत्व है, लेकिन चुनाव जीतना ही लक्ष्य नहीं हो सकता। 1998 में भाजपा के अध्यक्ष बनने के बाद एक इंटरव्यू के दौरान कुशाभाऊ ठाकरे ने मुझसे कहा था कि ‘राजनीति एक मिशन है। राजनीतिक दल केवल चुनाव जीतने या पद पाने के लिए नहीं होनी चाहिए। संगठन को समाज और राष्ट्र के हितों के लिए मजबूत करना हमारा लक्ष्य रहना चाहिए। ‘खासकर सत्ता में आने पर राजनीतिक दलों कई के नेता कार्यकर्ता कुछ अहंकार और कुछ पदों और लाभ की जोड़ तोड़ में लग जाते हैं। जनता के अलावा उनकी अपेक्षाएं भी बढ़ जाती हैं। गणतंत्र में मीठे फल सब खाना चाहते हैं, लेकिन फल फूल देने वाले पेड़ों की चिंता कम लोगों को रहती है। लोकतंत्र पर गौरव करने वाले कुछ पार्टियों के नेता अपने संगठन के स्वरुप को ही अलोकतांत्रिक बनाते जा रहे हैं। संविधान, नियम कानून, चुनाव आयोग के मानदंडों के रहते हुए राजनीतिक दलों को ही खोखला किया जा रहा है। हाल के वर्षों में तो यह देखने को मिल रहा है कि कुछ नेता अपनी ही पार्टी के समकक्ष नेताओं को नीचे दिखाने, हरवाने, उनके बारे में अफवाहें फैलाने का काम करने लगते हैं। अपने परिजनों या प्रिय जनों को सत्ता में महत्वपूर्ण कुर्सी नहीं मिलने पर बगावत कर देते हैं। विचारधारा का नाम लिया जाता है, लेकिन बिल्कुल विपरीत विचार वाले दल के साथ समझौता कर लेते हैं। कार्यकर्ता और जनता कि भावना से कोई मतलब नहीं रहता।
    यों यह बात नई नहीं है। बहुत से लोग आजकल वर्तमान स्थिति में निराश होकर चिंता व्यक्त करते हैं। उनके लिए मैं एक पत्र की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूं। पत्र में लिखा था ‘मैं शिद्धत से महसूस कर रहा हूं कि कांग्रेस मंत्रिमंडल बहुत अक्षम तरीके से काम कर रहे हैं। हमने जनता के मन में जो जगह बनाई थी, वह आधार खिसक रहा है। राजनेताओं का चरित्र अवसरवादी हो रहा है। उनके दिमाग में पार्टी के झगड़ों का फितूर है। वे इस व्यक्ति या उस गुट को कुचलने की सोच में लगे रहते हैं। ‘यह पत्र आज के कांग्रेसी का नहीं है। यह पत्र महात्मा गांधी ने 28 अप्रैल 1938 को लिखा और नेहरू को भेजा था, जब राज्यों में अंतरिम देशी सरकारें बानी थी। फिर नवम्बर 1938 में गांधीजी ने अपने अखबार हरिजन में लिखा-‘यदि कांग्रेस में गलत तत्वों की सफाई नहीं होती तो इसकी शक्ति खत्म हो जाएगी’ मई 1939 में गांधी सेवा संघ के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए महात्माजी ने बहुत दु:खी मन से कहा था ‘मैं समूची कांग्रेस पार्टी का दाह संस्कार कर देना अच्छा समझूंगा, बजाय इसके कि इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार को सहना पड़े।’ शायद उस समय के नेताओं पर गांधीजी की बातों का असर हुआ होगा, लेकिन क्या आज कांग्रेस भी उस विचार आदर्श से काम कर रही हैं? केवल फोटो लगाने से

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