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- डॉ. राकेश मिश्र
पं. अटल बिहारी वाजपेयी का नाम लेने से ऐसे विराट व्यक्ति का बोध होता है, जिसके व्यक्तित्व की व्यापकता असीमित है। एक राजनेता के रूप में तो उन्हें हर कोई जानता और मानता है। लेकिन, एक संवेदनशील साहित्यकार के रूप में भी वे व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के कण-कण में समाहित हैं। उनकी प्रतिभा बाल्यकाल में ही प्रस्फुटित हो चुकी थी। जब वह पांचवीं कक्षा में ही थे तो उन्होंने प्रथम बार भाषण दिया था, जिससे लोग काफी प्रभावित हुए थे। उच्च शिक्षा के लिए जब वे विक्टोरिया कॉलेजियट स्कूल में नामांकित थे तो उन्होंने वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लिया तथा प्रथम पुरस्कार जीता। कॉलेज जीवन में ही उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना शुरू कर दिया था, लेकिन साहित्य की साधना भी करते रहे ।
अटलजी राजनीति में रहते हुए साहित्य से जुड़े रहे या साहित्य की साधना करते हुए राजनीति के रंग में रंगे रहे, यह निर्णय करना थोड़ा कठिन है। वैसे अटलजी कहा करते थे कि राजनीति और साहित्य दोनों ही जीवन के अंग हैं। लेकिन, प्राय: राजनीति से जुड़े लोग साहित्य के लिए समय नहीं निकाल पाते और साहित्य से जुड़े लोग राजनीति में रूचि नहीं दिखा पाते। लेकिन, अटलजी ने एक नजीर पेश की और दोनों से जुड़े रहे, दोनों के लिए समय देते रहे। परंतु आज के राजनेता साहित्य से दूर हैं, इसी कारण उनमें मानवीय संवेदना का स्रोत सूख-सा गया है। कवि संवेदनशील होता है। एक कवि के हृदय में दया, क्षमा, करुणा और प्रेम होता है, इसलिए वह खून की होली नहीं खेल सकता। साहित्यकार को पहले अपने प्रति सच्चा होना चाहिए। इसके पश्चात उसे समाज के प्रति अपने दायित्य का सही अर्थों में निर्वाह करना चाहिए। वह भले ही वर्तमान को लेकर चले, किंतु उसे आने वाले कल की भी चिंता करनी चाहिए। अतीत में जो श्रेष्ठ है, उससे वह प्रेरणा ले, परंतु यह कभी न भूले कि उसे भविष्य का सुंदर निर्माण करना है। उसे ऐसे साहित्य की रचना करनी है, जो मानव मात्र के कल्याण की बात करे। अटलजी की कविताओं में राष्ट्रवाद, सनातन संस्कृति, जीवन यथार्थ, सामाजिक चेतना का बोध होता है। अटल बिहारी वाजपेयी का नाम ऐसे कवि के रूप में लिया जाता है जिन्होंने अपनी सरल और सुगम कविता से ही लोगों का दिल जीत लिया है। उनकी कविताएं भावपूर्ण होती थी जिन्हें समझना आसान होता था और उनकी कविताएं बहुत ही सरल शैली में लिखी जाती थी जो सीधे ही पढ़ने वाले के हृदय तक जाती थी।
अटलजी ने कई पुस्तकें लिखी हैं। इसके अलावा उनके लेख, उनकी कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं, जिनमें राष्ट्रधर्म, पांचजन्य, धर्मयुग, नई कमल ज्योति, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादिम्बनी और नवनीत आदि सम्मिलित हैं। राष्ट्र के प्रति उनकी समर्पित सेवाओं के लिए 25 जनवरी, 1992 में राष्ट्रपति ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने 28 सितंबर 1992 को उन्हें ’हिंदी गौरव’ से सम्मानित किया। इस अवसर पर उन्हें 51 हजार रुपये की धनराशि प्रदान की गई, परंतु उन्होंने उसी समय इसे सम्मान सहित संस्थान को अपनी ओर से भेंट कर दिया। अगले वर्ष 20 अप्रैल 1993 को कानपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट् की उपाधि प्रदान की। उनके सेवाभावी और त्यागी जीवन के लिए उन्हें पहली अगस्त 1994 को कमान्य तिलक पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके पश्चात 17 अगस्त 1994 को संसद ने उन्हें श्रेष्ठ सासंद चुना तथा पंडित गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार से सम्मानित किया। इसके बाद 27 मार्च, 2015 को भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इतने महत्वपूर्ण सम्मान पाने वाले अटलजी की उदारता अनुपम है। उन्होंने कहा कि मैं अपनी सीमाओं से परिचित हूं। मुझे अपनी कमियों का अहसास है। निर्णायकों ने अवश्य ही मेरी न्यूनताओं को नजरअंदाज करके मेरा चयन किया है। सद्भाव में अभाव दिखाई नहीं देता है। यह देश बड़ा है अद्भुत है, बड़ा अनूठा है। किसी भी पत्थर को सिंदूर लगाकर अभिवादन किया जा सकता है।
अटलजी ‘रामचरितमानस’ को अपने लिए प्रेरणा का स्रोत मानते थे। उन्होंने कहा था कि जीवन की समग्रता का जो वर्णन गोस्वामी तुलसीदास ने किया है, वैसा विश्व-साहित्य में नहीं हुआ है। काव्य लेखन के बारे में उनका कहना था कि साहित्य के प्रति रुचि मुझे उत्तराधिकार के रूप में मिली है। परिवार का वातावरण साहित्यिक था। उनके बाबा पंडित श्यामलाल वाजपेयी बटेश्वर में रहते थे। उन्हें संस्कृत और हिन्दी की कविताओं में बहुत रुचि थी। यद्यपि वे कवि नहीं थे, परंतु काव्य प्रेमी थे। उन्हें दोनों ही भाषाओं की बहुत सी कविताएं कंठस्थ थीं। वे अकसर बोलचाल में छंदों को उदधृत करते थे। उनके पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत के प्रसिद्ध कवि थे। वे ब्रज और खड़ी बोली में काव्य लेखन करते थे। उनकी कविता ’ईश्वर प्रार्थना’ विद्यालयों में प्रात: सामूहिक रूप से गाई जाती थी। यह सब देख-सुन कर मन को अति प्रसन्नता मिलती थी। पिता जी की देखा-देखी वे भी तुकबंदी करने लगा। फिर कवि सम्मेलनों में जाने लगे। ग्वालियर की हिंदी साहित्य सभा की गोष्ठियों में कविताएं पढ़ने लगे। लोगों द्वारा प्रशंसा मिली प्रशंसा ने उत्साह बढ़ाया।
अटलजी स्वयं कहते हैं कि सच्चाई यह है कि कविता और राजनीति साथ-साथ नहीं चल सकतीं। ऐसी राजनीति, जिसमें प्राय: प्रतिदिन भाषण देना जरूरी है और भाषण भी ऐसा जो श्रोताओं को प्रभावित कर सके, तो फिर कविता की एकांत साधना के लिए समय और वातावरण ही कहां मिल पाता है। उन्होंने जो कविताएं लिखी हैं, वे परिस्थिति-सापेक्ष हैं और आसपास की दुनिया को प्रतिबिम्बित करती हैं।
अपने कवि के प्रति ईमानदार रहने के लिए उन्हें काफी कीमत भी चुकानी पड़ी, किंतु कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता के बीच मेल बिठाने का वे निरंतर प्रयास करते रहे। अटलजी कहते थे कि- कभी-कभी इच्छा होती है कि सब कुछ छोड़कर कहीं एकांत में पढ़ने, लिखने और चिंतन करने में अपने को खो दूं, किंतु ऐसा नहीं कर पाता। मैं यह भी जानता हूं कि मेरे पाठक मेरी कविता के प्रेमी इसलिए हैं कि वे इस बात से खुश हैं कि मैं राजनीति के रेगिस्तान में रहते हुए भी, अपने हृदय में छोटी-सी स्नेह-सलिला बहाए रखता हूं।
25 दिसंबर 1924 को जन्म लेने वाले विराट व्यक्तित्व श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेयी जी को, उनकी ही कविता की चंद पंक्तियों से जयंती पर सादर श्रद्धांजलि।
जाने कितनी बार जिया हूँ,
जाने कितनी बार मरा हूँ।
जन्म मरण के फेरे से मैं,
इतना पहले नहीं डरा हूँ।
अन्तहीन अंधियार ज्योति की,
कब तक और तलाश करूँगा।
मैंने जन्म नहीं माँगा था,
किन्तु मरण की मांग करूँगा।
बचपन, यौवन और बुढ़ापा,
कुछ दशकों में ख़त्म कहानी।
फिर-फिर जीना, फिर-फिर मरना,
यह मजबूरी या मनमानी?