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- अनिल जैन
गुज़श्ता रोज बहुत ही दुखद घटना का मुज़ाहरा मेरे सामने पेश आया। मेरे एक मित्र की अपने नौकर से गर्मागर्म बहस हो रही थी जो इस मुकाम पर पहुंच गई थी कि यदि मैं और कुछ और लोग उसमें मुब्तिला न होते तो मामले का एक खूनी झगड़े में तब्दील होने का अंदेशा था। झगड़ा किसी ज़मीन की खरीद फरोख्त को लेकर था। जब मैंने मामले की तफसील जाननी चाही तो मेरा मित्र झिझका फिर परत दर परत कुछ इस तरह खुलासा हुआ कि मेरे दोस्त ने कुछ साल पहले एक ज़मीन का टुकड़ा खरीदा था। जाहिर था इसे खरीदने में जो रकम इस्तेमाल हुई थी उसे बाकायदा पेपरों में नहीं दिखाया गया था इसलिए यह ज़मीन पोशीदा तौर पर उसने अपने वफादार नौकर के नाम पर ले ली थी । वक्त बदला जमीन की कीमतें बढ़ीं और इसके साथ- साथ वफादारी के रिश्ते तार तार हुए। नौकर ने ज़मीन अपने मालिक को देने से साफ इंकार कर दिया। मामला अब करोड़ों का हो गया था तो सर फुटव्वल तक जा पहुंचा था। मेरे दोस्त ने धंधे में बहुत पैसा बनाया लेकिन उसने अपने दस्तावेजों में कभी भी साफगोई का मुज़ाहरा नहीं किया और न ही कभी एक पैसा टैक्स दिया। इस पैसे से उसने खुद के बच्चों के रिश्तेदारों के नाम से घरबार और जमीनें खरीदी। जब सारे नाम चुक गए तो इसके बाद नौकरों का नम्बर आया। अब जब नौबत यहां तक आ गई तो वही हो रहा है जिसकी आशंका थी। अब मेरा दोस्त न तो किसी से यह बात कह सकता था और न ही पुलिसिया इमदाद ले सकता था। उसका सुकून और अमन-चैन खो चुका था। इस पर तुर्रा यह है कि उनके साथ इस किस्म का यह अकेला मुआमला नहीं है उसने इस तरह के कई और गुल खिलाये थे जिनके साथ अब फल भी लगने शुरू हो गए थे। वह दर्जनों अदालती दांवपेंच में भी उलझा है जिसमें अब उसकी ईमानदारी की गाढ़े पैसों की कमाई खर्च हो रही है। हिन्दुस्तान में टैक्स न देना बड़ी चतुराई समझी जाती है। बचपन से ही सिखाया जाता है कि टैक्स कैसे बचाना है। जैसे ही बच्चे कमाना शुरू करते हैं उनके माता पिता और तथाकथित पण्डित उनको टैक्स न भरने के गुर सिखाते हैं। वे तरह तरह के मशवरे देते हैं कि कैसे इधर उधर इन्वेस्टमेंट करके टैक्स न भरें। बच्चा बगैर टर्म्स और कंडीशन देखे उस रास्ते पर निकल पड़ता है। नतीजा यह होता है कि या तो उसको नुकसान हो जाता है या उसे उसकी उम्मीद के मुताबिक फायदा नहीं होता है।