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न्यूनतम भागीदारी वाले पसमांदा मुसलमान

  • डॉ. फैयाज अहमद फैजी
    यह एक सामाजिक सच्चाई है कि भारत का मुस्लिम समाज एक समरूप समाज नहीं है, बल्कि यहां साफ तौर से बाहर से आए हुए विदेशी और देशी मुसलमान का विभेद है। इस्लामी फिक्ह (विधि) और इस्लामी इतिहास की किताबों में भी अशराफ, अजलाफ और अरजाल का वर्गीकरण मिलता है। अशराफ जो शरीफ (उच्च) शब्द का बहुवचन है, जिसका एक बहुवचन शोरफा भी होता है, जिसमें अरब, ईरान और मध्य एशिया से आए हुए सैयद शेख, मुगल, मिर्जा, पठान आदि जातियां आती हैं, जो भारत में शासक रही हैं। जल्फ (असभ्य) का बहुवचन अजलाफ है, जिसमें अधिकतर कामगार या शिल्पकार जातियां आती हैं, जो अन्य पिछड़े वर्ग में समाहित हैं। अरजाल रजील (नीच) का बहुवचन है, जिसमें अधिकतर साफ-सफाई का काम करने वाली जातियां हैं। अजलाफ और अरजाल को सामूहिक रूप से पसमांदा (जो पीछे रह गए हैं) कहा जाता है, जिसमें मुस्लिम धर्मावलंबी आदिवासी (बन-गुजर, सिद्दी, तोडा, तड़वी, भील, सेपिया, बकरवाल), दलित (मेहतर, भक्को, नट, धोबी, हलालखोर, गोरकन) और पिछड़ी जातियां (धुनिया, डफाली, तेली, बुनकर, कोरी) आते हैं। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि बाहर से आए हुए शासक वर्गीय अशराफ मुसलमानों द्वारा भारतीय मूल के देशज पसमांदा मुसलमान, के साथ मुख्यतः नस्लीय और सांस्कृतिक आधार पर भेदभाव किया जाता रहा है.. प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग (काका कालेलकर आयोग), मंडल आयोग, रंगनाथ मिश्रा आयोग और सच्चर समिति तक ने अपने रिपोर्टों में इस पिछड़ेपन को रेखांकित किया है। इसीलिए भावनात्मक और जज्बाती मुद्दों से हटकर, रोजी-रोटी, सामाजिक बराबरी और सत्ता में हिस्सेदारी की मूल अवधारणा के साथ पसमांदा आंदोलन ने इस्लाम / मुस्लिम समाज में व्याप्त नस्लीय एवं सांस्कृतिक भेदभाव, छुआ-छूत, ऊँच-नीच, जातिवाद को एक बुराई मानते हुए इसे राष्ट्र निर्माण में एक बाधा के रूप में देखते हुए, इसका खुलकर विरोध कर मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय की स्थापना पर बल देता आया है। मुस्लिम समाज में जहां एक ओर शासक वर्गीय अशराफ मुसलमान (सैयद, शेख, मुगल, पठान) अपने आपको दूसरे अन्य मुसलमानों से श्रेष्ठ नस्ल का मानते हैं, वहीं दूसरी ओर देशज पसमांदा (आदिवासी, दलित और पिछड़ी जातियों जैसे वनगुजर, महावत, भक्को, फकीर, पमारिया, नट, मेव, भटियारा, हलालखोर (स्वच्छकार), भिश्ती, कंजड़, गोरकन, धोबी, जुलाहा, कसाई, कुंजड़ा, धुनियां आदि को अपने से कमतर मानते आए हैं। इस निरादर की भावना के साथ-साथ अल्पसंख्यक राजनीति के नाम पर पसमांदा की सभी हिस्सेदारी अशराफ की झोली में चली जाती है, जबकि पसमांदा की आबादी कुल मुस्लिम आबादी का 90 प्रतिशत है। लेकिन सत्ता में चाहे वो न्यायपालिका, कार्यपालिका या विधायिका हो या मुस्लिम कौम के नाम पर चलने वाले इदारे यानी संस्थान हों, इनमें पसमांदा की भागीदारी न्यूनतम स्तर पर है।
    मजहबी पहचान की साम्प्रदायिक राजनीति शासक वर्गीय अशराफ की राजनीति है, जिससे वो अपना हित सुरक्षित रखता है। अशराफ सदैव मुस्लिम एकता का राग अलापता है। वह यह जनता है कि जब भी मुस्लिम एकता बनेगी, तो अशराफ ही उसका लीडर बनेगा। यहीएकता उन्हें अल्पसंख्यक से बहुसंख्यक बनाती है, जिसकी वजह से अशराफ को इज्जत, शोहरत, पद और संसद, विधानसभाओं में सम्मानजनक स्थान मिलता है. मुस्लिम एकता अशराफ की जरूरत है और पसमांदा एकता वंचित पसमांदा की जरूरत है। अगर पसमांदा एकता बनती है, तो पसमांदा को भी ऐसे लाभ मिल सकते हैं। इस देश में बसने वाले लगभग 13 से 15 करोड़ की जनसंख्या वाले देशज पसमांदा समाज की मुख्य धारा से दूरी किसी भी रूप में देश और समाज के हित में नहीं है।

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