Home » सीएए के चुनावी दांव से चित्त हो पाएगा विपक्ष

सीएए के चुनावी दांव से चित्त हो पाएगा विपक्ष

  • उमेश चतुर्वेदी
    आम चुनावों की घोषणा की औपचारिकता बाकी है। अलबत्ता चुनावी बयार बहने लगी है। ऐसे में नागरिकता संशोधन कानून, जिसे हम संक्षेप में सीएए के नाम से जानते हैं, लागू किया जाएगा तो उसे राजनीतिक के चश्मे देखा ही जाएगा। यूं तो सियासी आइने में इस कानून को तभी से देखा जा रहा है, जब से इसे संसद ने पारित किया है। इस कानून के लागू किए जाने को लेकर दो तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं। विभाजन की वजह से सीमा के दूसरी ओर से आए लोग हों या अफगानिस्तान या म्यांमार से आए लोग, उनकी प्रसन्नता का पारावार नहीं हैं। उन्हें लगता है कि नागरिकता हासिल करने की उनकी दशकों पुरानी मांग अब पूरी हो जाएगी। नागरिकता मिलने के बाद वे भी भारत भूमि पर दूसरे लोगों की तरह आधिकारिक तौर पर शिक्षा हासिल कर पाएंगे, जमीन-जायदाद बना पाएंगे, नौकरियां कर पाएंगे और पहले की तुलना में बेहतर जिंदगी जी पाएंगे। दूसरी तरफ राजनीतिक प्रतिक्रियाएं हैं। जो अपनी-अपनी राजनीतिक लाइन के हिसाब से हैं। चूंकि इस कानून की पैरोकारी करने वाली अकेली पार्टी बीजेपी है, ऐसे में इस कानून के लागू किए जाने से उसका खुश होना स्वाभाविक है। वहीं दूसरी तरफ मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल और स्वयंसेवी संगठन हैं। जाहिर है कि वे इस कानून के लागू किए जाने को दो तरह से देख रहे हैं। वे जहां इसे पहले की तरह अल्पसंख्यक विरोधी बता रहे हैं, वहीं इसे राजनीतिक दांव भी बता रहे हैं।
    इस कानून के लागू होने के बाद पश्चिम बंगाल का मतुआ समुदाय बेहद खुश है। खुश तो राजस्थान के सीमावर्ती शहरों मसलन बीकानेर आदि में बसे सीमा पार से आए हिंदू समुदाय के लोग भी हैं। मतुआ समुदाय तो अपनी लड़ाई के बाद कुछ अधिकार हासिल कर चुका है। लेकिन राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों में दशकों से रह रहे हिंदू समुदाय के लोग नारकीय जीवन जीने के अब भी मजबूर हैं। वे सरकारी और स्वयंसेवी संस्थाओं से मिले सहयोग के सहारे जी रहे हैं। मतुआ समुदाय प्रमुख रूप से पश्चिम बंगाल के उत्तर चौबीस परगना और दक्षिण चौबीस परगना जिलों में फैला हुआ है। यह समुदाय बांग्लादेश से आया था। दशकों से उनकी मांग स्थायी नागरिकता की रही है। ऐसा माना जा रहा है कि सीएए लागू होने के बाद पश्चिम बंगाल में मतुआ समुदाय का जहां थोक समर्थन भारतीय जनता पार्टी को मिलेगा, वहीं अवैध बांग्लादेशियों से परेशान लोगों का भी साथ मिलेगा। शायद यही वजह है कि ममता बनर्जी बार-बार कह रही हैं कि वे पश्चिम बंगाल में सीएए को लागू नहीं होने देंगी। हालांकि संसद के पारित कानून को लागू न करने देना अवैधानिक ही माना जाएगा। ममता बनर्जी ने संविधान की शपथ ली है। संसद द्वारा पारित कानून भी संवैधानिकता के ही दायरे में आता है। इसलिए अगर ममता इसे लागू करने से इनकार करती हैं तो एक तरह से वह संविधान का उल्लंघन माना जाएगा। वैसे आज की राजनीति में नैतिकता को कोसों पीछे छोड़ दिया है। अपने निजी राजनीतिक फायदे के लिए अगर राजनीति को संविधान का उल्लंघन करना पड़े, संवैधानिक दायित्वों को किनारे रखना पड़े, या झूठा आश्वासन भी देना पड़े तो राजनीति इससे चूकती नहीं। सीएए ना लागू करने के ममता के दावों को भी राजनीति के इसी नए पाठ के दायरे में देखा-परखा जा सकता है।
    सीएए का मकसद पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा से आए धार्मिक अल्पसंख्यकों हिंदू, जैन, सिख, बौद्ध, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को नागरिकता देने की व्यवस्था करता है। 11 दिसंबर 2019 को जब इस कानून को संसद ने पारित किया तो भारत के अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय को कुछ राजनीतिक दलों और स्वयंसेवी संगठनों ने भड़काया था। उन्होंने मुस्लिम समुदाय के लोगों को समझाया कि इस कानून को लागू किए जाने के बाद वे भारत में दूसरे दर्जे के नागरिक बन जाएंगे। स्वाधीनता के बाद से ही अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों की समूची मानसिकता राजनीतिक दलों और उनके संरक्षक बनने का दावा करने वाले स्वयंसेवी संगठनों के ही समझ के अनुसार चलती रही है। सीएए के खिलाफ उठे देशव्यापी विवाद को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। हालांकि भारत सरकार ने बार-बार इससे इनकार किया है कि यह कानून मुसलमानों के खिलाफ है। चूंकि मुस्लिम समुदाय में भाजपा को लेकर भरोसा नहीं है, लिहाजा उसने भाजपा के संदेशों की बजाय विपक्षी दलों के समझाने पर ज्यादा भरोसा किया।
    विपक्षी दलों को लगता है कि सीएए के लागू होने का बीजेपी को सीधा फायदा पश्चिम बंगाल की बजाय असम में भी मिलेगा। जहां राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी बड़ा मुद्दा है। असम में 1985 में अवैध बांग्लादेशी अप्रवासियों को मुद्दे को लेकर हुए आंदोलन के बाद भारत सरकार के साथ एक समझौता हुआ था। जिसके मुताबिक, 25 मार्च 1971 के बाद बांग्लादेश से असम आए अप्रवासियों की पहचान की जानी थी और उन्हें बाहर करना था। राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर इसीलिए असम में ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। असम के कई जिलों में बांग्लादेशी अप्रवासियों की वजह से जनसांख्यिकी गड़बड़ हो गई है। यह मसला वहां एक तरह जहां बहुसंख्यकों को चिंतित करता है, वहीं अल्पसंख्यकों यानी मुस्लिम समुदाय को भी परेशान करता है। बहुसंख्यकों को लगता है कि अवैध अप्रवासियों के चलते उनके अधिकार छिन रहे हैं। जबकि अल्पसंख्यकों को लगता है कि एनआरसी और सीएए के लागू होने के बाद उन्हें असम छोड़ना पड़ सकता है।
    रही बात राजनीति की, तो आज राजनीति कौन नहीं कर रहा? अल्पसंख्यक यानी मुस्लिमों के नाम पर अब तक राजनीति करने वाले कांग्रेस और वामपंथी दलों को पहली बार उनकी ही भाषा में जवाब मिल रहा है। चूंकि आज की पूरी राजनीति चुनाव केंद्रित है और सत्ताओं के बिना राजनीतिक उद्देश्य भी हासिल नहीं किए जा सकते, इसलिए राजनीतिक ताकतें साध्य सत्ता के लिए मुफीद राजनीतिक कदमों को अपना साधन बनाती हैं। भाजपा भी अगर ऐसा कर रही है तो उसके समर्थक इसे अतीत की ऐसी राजनीति के जवाब के तौर पर देख रहे हैं।
    जब कानून पारित हुआ था, तब शायद सरकार को व्यापक विरोध की उम्मीद नहीं थी। लेकिन इस बार सरकार तैयार है। जगह-जगह सुरक्षा बलों की चौकसी इस तैयारी को ही रूपायित कर रही है। शायद यही वजह है कि इस बार राजनीति चाहे जितनी हो ले, पिछली बार की तरह हिंसक विरोध की गुंजाइश नहीं है।

Swadesh Bhopal group of newspapers has its editions from Bhopal, Raipur, Bilaspur, Jabalpur and Sagar in madhya pradesh (India). Swadesh.in is news portal and web TV.

@2023 – All Right Reserved. Designed and Developed by Sortd