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- प्रमोद भार्गव
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से आहत होकर अंग्रेजों ने स्वतंत्रता सेनानियों और उनके मददगारों को दंड देने की दृष्टि से अनेक औपनिवेशिक कानून लागू किए थे। इनमें प्रमुख रूप से अंग्रेजी राज का पर्याय बने तीन मूलभूत कानूनों में आमूलचूल परिवर्तन किए गए हैं। 1860 में बने इंडियन पेनल कोड को अब भारतीय न्याय संहिता, 1898 में बनी दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और 1872 में बने इंडियन एविडेंस कोड को अब भारतीय साक्ष्य संहिता के नाम से जाना जाएगा। इन कानूनों के शीर्षक में ही ‘दंड’ की प्रधानता है। मसलन इन कानूनों की चपेट में जो भी आएगा उसे दंडित होना ही पड़ेगा। इस भय से मुक्ति का प्रावधान करने की दृष्टि से ‘न्याय’ शब्द का प्रयोग कानून के शीर्षकों में किया गया है।
न्याय शब्द ही इस अर्थ का प्रतीक है कि यदि आपसे भूलवश कोई अपराध हो भी गया है तो आप न्याय के भागीदार होंगे। अंग्रेजों के बनाए हुए दंड के विधान वाले ये कानून वास्तव में उन अंग्रेजों की सुरक्षा के लिए बनाए गए थे, जिनके विरुद्ध आम भारतीय आजादी की लड़ाई लड़ रहा था। अतएव अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे दमन और लूट को सुरक्षा देने वाले कानून 1 जुलाई 2024 से खत्म हो जाएंगे।
फिरंगी हुकूमत ने कानून भारतीयों को अधिकतम दंड देने की मानसिकता से बनाए गए थे, जबकि कोई भी विधि सम्मत प्रक्रिया दंड की अपेक्षा न्याय के सारोकारों से जुड़ी होनी चाहिए। इसीलिए भारतीय न्याय व्यवस्था के सिलसिले में कहा जाता रहा है कि यहां न्याय नहीं निराकरण होता है। इन कानूनों के लागू होने के साथ दुनिया में सबसे अधिक आधुनिक आपराधिक न्याय प्रणाली भारत की होगी, क्योंकि अब इनकी आत्मा में भारतीयता निहित कर दी गई है। वैसे भी भारत में न्याय की अवधारणा बहुत पुरानी है और ये कानून उसी अवधारणा की भावना पर आधारित हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच प्रण किए थे, इनमें एक प्रण गुलामी की निशानियों को खत्म करना भी था। कानून संबंधी पारित विधेयक उसी परिप्रेक्ष्य में हैं। इन नए कानूनों के अंतर्गत दंड अपराध रोकने की भावना पैदा करने के लिए दिया जाएगा। ये नए कानून महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा पर केंद्रित हैं। अब नए कानून में नाबालिग से दुष्कर्म और माॅब लिंचिंग के लिए फांसी की सजा दी जाएगी। राजद्रोह कानून ब्रिटिश सत्ता को कायम रखने के लिए था, इसे अब खत्म किया जा रहा है। कुछ प्रचलित धाराओं की संख्या भी बदली गई है।
प्रमुख रूप से अंग्रेजी राज का पर्याय बने तीन मूलभूत कानूनों में आमूलचूल परिवर्तन किए गए हैं। 1860 में बने इंडियन पेनल कोड को अब भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) कहा जाएगा। 164 साल पुरानी आईपीसी में 511 धाराएं थीं, जो बीएनएस-2023 में 358 रह जाएंगी। इसमें 21 नए अपराध जुड़े हैं और 41 धाराओं में सजा बढ़ाई गई है। पहली बार छह अपराधों में सामुदायिक सेवा की सजा जोड़ी गई है। साफ है, पीड़ितों के साथ न्याय पर फोकस किया गया है। 1898 में बने दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) कहा जाएगा। इसमें 47 नई धाराओं के साथ अब कुल 531 धाराएं होंगी। पहले धारा 154 में होने वाली प्राथमिकी नए कानून के तहत धारा-173 में दर्ज की जाएगी। अब पुराने कानून दंड प्रक्रिया संहिता में से ‘दंड को हटाकर नागरिक सुरक्षा पर जोर दिया गया है, 1872 में बने इंडियन एविडेंस कोड को अब भारतीय साक्ष्य संहिता के नाम से जाना जाएगा। पुराने कानून में 167 धाराएं थीं, जो अब 170 रह गई हैं। बढ़ते साइबर अपराधों के संदर्भ में इस कानून की अहम्ा् भूमिका जताई जा रही है।
नए प्रारूप में धारा 150 के तहत आरोपी को सात साल की सजा से लेकर उम्रकैद तक की सजा दी जा सकती है। माॅब लीचिंग यानी उन्मादी भीड़ द्वारा हत्या और हिंसा के लिए अलग से सजा का प्रावधान किया गया है। झारखंड और अन्य कई अशिक्षित क्षेत्रों में महिलाओं को डायन बताकर समूह मार देता है। इन हत्याओं पर अब माॅब लीचिंग कानून लागू होगा। अभी तक ऐसे मामलों में हत्या की धारा 302 और दंगा या बलवा की धाराएं 147-148 के तहत कार्यवाही होती है। नाबालिग से दुष्कर्म या पहचान छिपाकर किए गए दुष्कर्म के आरोप में 20 साल का कारावास या मृत्युदंड का प्रावधान किया गया है। विरोध नहीं करने के अर्थ का आशय सहमति नहीं निकाला जाएगा। मौजूदा स्थिति में नाबालिग से दुष्कर्म पर न्यूनतम सजा में सात साल की व्यवस्था है। इसी तरह राज्यों को अब असली पहचान छिपाकर संबंध बनाने वाले अपराधियों के लिए ‘लव जिहाद’ जैसा पृथक कानून बनाने की जरूरत नहीं है। प्रस्तावित कानून में गलत पहचान बताकर नौकरी, पदोन्नति और अन्य प्रलोभन दिलाने के झूठे वादे कर दुष्कर्म के अंजाम को सजा के दायरे में लाया गया है। लव जिहाद इसी के अंतर्गत आएगा। देश में पहली बार छोटे-मोटे अपराधों के लिए सामुदायिक सेवा का क्रांतिकारी प्रावधान किया गया है। इन अपराधों में नशे में हंगामा और पांच हजार से कम की चोरी करने के आरोप में सामुदायिक सेवा की सजा दी जाएगी। ऐसी सजा में सार्वजनिक स्थलों पर पौधे लगाने जैसे प्रावधान शामिल हैं।
सबसे बड़ा परिवर्तन 1860 में अस्तित्व में आए औपनिवेशक कानून ‘राजद्रोह’ में किया गया है। राजद्रोह कानून से ‘राजद्रोह’ शब्द विलोपित करके ‘देशद्रोह’ किया है। क्योंकि अब देश स्वतंत्र हो चुका है। अतएव लोकतांत्रिक देश में सरकार की आलोचना कोई भी कर सकता है। यह नागरिक का अधिकार है। इसके औचित्य पर लगातार सवाल उठते रहे थे। संसद में भी इस धारा के औचित्य पर कई बार प्रश्नचिन्ह खड़े किए गए हैं। लेकिन बदलाव के इस प्रस्ताव से पहले कोई भी सरकार ने इस कानून में परिवर्तन की हिम्मत नहीं जुटा पाई। संप्रग सरकार में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, तब 2012 में राज्यसभा में प्रस्तुत एक निजी विधेयक में सांसद डी राजा ने कहा था कि ‘देश में चले स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान स्वतंत्रता सेनानियों के दमन और उन पर अमानुषिक अत्याचार के लिए फिरंगी हुकूमत ने 1860 में देशद्रोह का कानून बनाया था। इसे और कठोर 1870 में धारा 124-ए को दण्ड प्रक्रिया संहिता में शामिल कर दिया गया था, लिहाजा इस कानून में अब बदलाव की जरूरत है। ‘लेकिन इस निजी विधेयक को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
दरअसल यही वह कालखंड था, जब 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पूरे राष्ट्र में एकजुटता के साथ उभरा था। इसमें आमजन की बड़ी संख्या में भागीदारी थी। इसी आमजन को दंडित करने के लिए ही इस दमनकारी कानून को वजूद में लाया गया था। यह सब जानते हुए भी तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने धारा 124-ए को ‘आतंकवाद, उग्रवाद और सांप्रदायिक हिंसा जैसी देशद्रोही समस्याओं से निपटने के लिए आवश्यक और संविधान सम्मत’ बताया था। सरकार ने इस समय संसद में यह भी स्पष्ट किया था कि समुचित दायरे में रहकर सरकार की आलोचना करने पर कोई रोक नहीं है, लेकिन जब आपत्तिजनक तरीकों का सहारा लिया जाए, तब यह धारा प्रभावी हो सकती है।’ तब बहस में भाजपा समेत कई दलों के सांसदों ने मौजूदा सरकार के इस रुख का समर्थन किया था। इस धारा के आतंकवाद और उग्रवाद के परिप्रेक्ष्य में चले आ रहे महत्व के चलते ही, इसे पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी नहीं हटा पाए थे, जबकि वे इसे हटाए जाने के पक्ष में थे।
धारा 124-ए के अंतर्गत लिखित या मौखिक शब्दों, चिन्हों प्रत्यक्ष या अप्रत्क्ष तौर से नफरत फैलाने या असंतोष जाहिर करने पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया जा सकता है। इस धारा के तहत दोषी पर आरोप साबित हो जाए तो उसे तीन साल का कारावास हो सकता है। 1962 में शीर्ष न्यायालय के सात न्यायाधीशों की खंडपीठ ने ‘केदारनाथ बनाम बिहार राज्य’ प्रकरण में, राजद्रोह के संबंध में ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि ‘विधि द्वारा स्थापित सरकार के विरुद्ध अव्यवस्था फैलाने या फिर कानून या व्यवस्था में गड़बड़ी पैदा करने या फिर हिंसा को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति या मंशा हो तो उसे राजद्रोह माना जाएगा।’ इसी परिभाषा की परछाईं में हार्दिक पटेल बनाम गुजरात राज्य से संबंधित मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘यदि कोई व्यक्ति अपने भाषण या कथन के मार्फत विधि द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ हिंसा फैलाने का आवाहन करता है तो उसे राजद्रोह माना जाएगा।