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- सोनम लववंशी
बरसों पहले अखबार में छपे एक विज्ञापन को देखकर ये जुमला कहा गया था ‘विज्ञापन कंबल की दर्शनीय टांगे, दुकानदार से जाकर हम क्या मांगे!’ आज भी ये बात हर विज्ञापन पर सटीक बैठती है। बाजारवाद के इस दौर में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसका विज्ञापन न किया जाता हो। विज्ञापन बनाने वाली कम्पनियां इतनी चालाकी से अपने प्रोडक्ट की नुमाइश करती है कि न चाहते हुए भी वो प्रोडक्ट हमारे लिए जरूरी से लगने लगते हैं। यहां तक कि झूठे और भ्रामक विज्ञापनों से भी कोई गुरेज नहीं करती। लेकिन बीते दिनों पतंजलि के भ्रामक विज्ञापनों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रवैया अपनाया। इसके बाद सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय हरकत में आया और विज्ञापन कम्पनियों को स्वप्रमाणन-पत्र जारी करने के निर्देश दिए हैं। ऐसे में अगर कम्पनियों के प्रोडक्ट में किए गए दावे गलत निकलते है तो न केवल हर्जाना चुकाना होगा। बल्कि कार्रवाई के लिए भी तैयार रहने की बात कही गई है। मंत्रालय द्वारा ऐसे पोर्टल भी तैयार किए जा रहे हैं जिसमें विज्ञापनदाता स्वप्रमाणन-पत्र अपलोड़ करेंगे। इतना ही नहीं भ्रामक विज्ञापनों में शामिल चर्चित हस्तियों को भी झूठ में शामिल माना जाएगा। अदालत के सख्त रुख के बाद देर से ही सही पर सम्बंधित मंत्रालय और व्यवस्थाएं जाग रही है। वरना तो देश में भ्रामक विज्ञापनों की ऐसी होड़ सी मची हुई है कि स्वयं कामदेव भी दंडवत हो जाए।
गोरापन बढ़ाने वाली क्रीम तो बीते 54 सालों से भ्रामक विज्ञापनों के सहारे ही बिकती आई है। इन क्रीमों से गोरापन भले न मिला हो पर कम्पनी को 2400 करोड़ रुपए का सालाना रेवेन्यू जरूर मिल रहा है। ऐसा ही हाल पेय पदार्थों को लेकर है। जिसका मार्किट 7500 करोड़ रुपए के पार पहुंच गया है। जबकि सॉफ्ट ड्रिंक का मार्किट 5700 करोड़ होने का अनुमान है। विडंबना देखिए कि जिन पेय पदार्थों को स्वास्थ्य वर्धक बताकर धड़ल्ले से बेचा जा रहा है। वही बीमारियों की वजह बन रहे हैं। जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाली कम्पनियों को तो सिर्फ अपना मुनाफा कमाना है। जबकि आम जनता लुभावने विज्ञापनों के जाल में उलझी है।
वैसे भी एक कहावत है कि अगर एक झूठ को 100 बार बोला जाए तो जनता उसे सच मान ही लेती है। यही वजह है कि सड़क से लेकर दीवार तक ऐसा कोई कोना नहीं है जहां विज्ञापन न चस्पा हो। सुई से लेकर हवाई जहाज़ तक हर चीज़ का विज्ञापन दिखाया जाता है। समाचार चैनलों पर तो ख़बर से ज्यादा विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। इतना ही नहीं इन विज्ञापनों में इस हद तक अश्लीलता परोसी जाने लगी है कि परिवार के साथ बैठकर टेलीविजन देखना भी दूभर सा हो गया है। न्यूज चैनलों के बीच कॉन्डम का विज्ञापन देखकर ऐसा लगता है जैसे कोई पोर्न चैनल देख रहे हो। परफ्यूम के विज्ञापन तो ऐसे होते है मानो रेप कल्चर को बढ़ावा दे रहे हो। कुल मिलाकर देखा जाए तो महिलाओं को विज्ञापन के केंद्र में रखकर उनकी नारी देह को अश्लील तरीके से परोसा जा रहा है। विज्ञापनों में महिलाओं को कामुक दिखाने का चलन इस कदर बढ़ गया है जैसे नारी सिर्फ उपभोग की वस्तु हो! कहने को तो हमारे देश में अश्लील प्रदर्शन के विरुद्ध कानूनी प्रावधान है, फिर भी उसकी खुलेआम धज्जियां उड़ाई जाती है। कोर्ट ने भ्रामक विज्ञापनों पर तो चाबूक चला दी पर विज्ञापनों के माध्यम से परोसी जा रही अश्लीलता को भी संज्ञान में लिया जाना चाहिए।
ये सच है कि वर्तमान दौर में विज्ञापन हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गए हैं, बदलते परिवेश में विज्ञापनों का रंग रूप भी बदल गया है। एक दूसरे से बेहतर दिखने दिखाने की चाह में विज्ञापनों में अश्लीलता का एक ऐसा दौर शुरू हो गया। जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की गई थी। खासकर, इन विज्ञापनों में महिलाओं को कामुक, अर्धनग्न स्वरुप में प्रदर्शित किया जाता है। किसी के पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं है कि ये विज्ञापन ‘नारी देह’ पर ही केंद्रित क्यों होते है? आखिर एक स्त्री किसी पुरुष के अंडर वियर या परफ्यूम पर सम्मोहित कैसे हो सकती है? ऐसी क्या वजह है जो उत्पाद की बिक्री बढ़ाने के लिए महिलाओं के अंग प्रदर्शन और झूठ का सहारा लिया जाता है।