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- डॉ वंदना गांधी
“मेरा नाम शालिनी उन्नीकृष्णन था नर्स बनकर लोगों को सर्व करना चाहती थी अब फातिमा हूँ आईएसआईएस टेरेरिस्ट।” फिल्म की अदाकारा का इतना परिचय देना ही पूरी फिल्म की कहानी कह देता है कि कैसे समाज की सेवा कार्य का सपना संजोए लड़की को षडयंत्रपूर्वक धर्म परिवर्तन कराकर उसे आतंकवाद की आग में झोंक दिया जाता है। ‘द केरल स्टोरी’ शालिनी से फातिमा बनी एक लड़की की खौफनाक सच्चाई सामने लाती है। इसके साथ ही फिल्म इस बात को भी सामने लाती है कि किस प्रकार धर्म के नाम पर इंसानियत को ताक पर रखकर बड़े पैमाने पर लड़कियों का ब्रेनवाश कराकर, उनके अश्लील वीडियो के माध्यम से ब्लैकमेल कर, उन्हें गर्भवती बनाकर तो किसी के साथ रोजाना सामूहिक बलात्कार करके यानी येन केन प्रकारेण धर्मांतरण कर टूलकिट की तरह उपयोग करके आईएसआईएस आतंकवादी बना दिया जाता है यह फिल्म इस बात को भी सामने लाती है। ‘द केरल स्टोरी’ सत्य की यात्रा है। समाज को सत्यता का आईना दिखाने का प्रयास है। फिल्म देखने के बाद लगता है कि सच में निर्माता-निर्देशक ने इस विषय पर जाने कितने वर्षों कार्य किया है। इसके बाद ही बहन बेटियों के मर्म को, उनकी अंतहीन वेदना को दर्शकों के सामने रखा है। फिल्म में यह देखते हुए रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि मासूम और संपन्न परिवारों की बच्चियां जो समाज हितार्थ काम करने के उद्देश्य को लेकर घर से अपने सपनों की उड़ान भरने निकली थीं लेकिन कैसे सहपाठी की कुटिल चालों में फंसकर, भटक कर कोई सेक्स स्लेब बन जाती हैं ,तो कोई सामूहिक बलात्कार का दंश लेकर जीती है,कोई ब्लैकमेलिंग का शिकार होकर आत्महत्या तक कर लेती है। उस परिवार की वेदना का तो सोचकर भी सिहरन होती है कि कैसे सहन कर पाए होंगे परिवार के लोग यह सब।
समझ नहीं पा रही कि फिल्म का इतना विरोध जाने क्यों हो रहा है? समाज के सामने अंडरवर्ल्ड की फिल्में परोसी जाती हैं, जिनमें अश्लील दृश्य, ऊटपटांग संवाद, फ़ूहड़ संगीत, निरुद्देश्य घटनाएं दिखाई जाती हैं। ऐतिहासिक घटनाओं पर बनी फिल्मों में ऐतिहासिक पात्रों की गलत छवि का प्रदर्शन किया जाता है इतिहास को तोड़मरोड़ कर परोसा जाता है। जबकि ‘द केरल स्टोरी’ के रूप में हमारे सामने इतने साहस के साथ सच रखने का जो प्रयास किया गया है उसे सराहा जाना चाहिए। यदि किसी को यह घटनाएं सच नहीं लगतीं तो वे इसे कहानी मानकर ही देख सकते हैं(वैसे निर्देशक के पास अनेकों घटनाओं, साक्ष्यों एवं पीड़ित लड़कियों के वीडियो उपलब्ध हैं) यदि हम उन मां-पिता का दर्द अनुभव करें तो मस्तिष्क काम करना बंद कर देता है ,दिमाग़ संज्ञा शून्य हो जाता हैकि कैसे उनकी युवा, बुद्धिशील लड़की मजहबी चंगुल में फंस कर आत्महत्या को मजबूर हो जाती है,तो किसी लड़की को रोजाना पंद्रह से ज्यादा लोगों द्वारा बलात्कार का शिकार बनाया गया होगा या किसी को केवल हिजाब न पहनने के कारण मार्केट में मॉलेस्ट किया गया होगा। उफ़ ! क्या मन:स्थिति रही होगी उन लड़कियों की और उनके माता-पिता की। अंतहीन दर्द और वेदना के बीच असहनीय जीवन लेकिन कुछ न कर पाने की लाचार स्थिति।
फिल्म के अंत में पार्श्व में एक गीत बजता है- “ना जमी मिली ना फलक मिला।” यह गीत दिमाग को झंकृत कर देता है,झकझोर देता है ।सच में धर्मांतरण करा कर सीरिया भेजी गई, फिल्म में दिखाई गई लड़कियां हों या लव जिहाद के जाल में फंसी लड़कियां, सभी का यही हश्र होता है। उन्हें न तो जमीन मिलती और न ही वह ऊंचाइयां जिन पर उड़ने के उनके सपने होते हैं। वहीं दूसरी ओर जिन रेशमी सपनों की डोर थमाकर उन्हें मजहब में लाया जाता है वहां दुरुपयोग कर उनकी आत्मा तक को मार दिया जाता है। इस प्रकार भुक्तभोगी लड़कियों में केरल की तरह सभी को सीरिया भेजकर आतंकवादी या सेक्स स्लेब या आत्मघाती बम तो नहीं बनाया जाता किंतु उनकी जिंदगी नर्क की वेदना से कम नहीं होती। ईश्वर सभी को सदबुद्धि दे ताकि मजहब के नाम पर सैकड़ों हजारों मासूम लड़कियों की जिंदगी को इस प्रकार की हैवानियत से मुक्त रखें। इंसानियत के आधार पर भी इन बच्चियों का हथियार की तरह उपयोग करना बंद हो। इनकी व्यथा और पीड़ा को सभी आत्मसात कर जागरूक हों, बस यही उम्मीद करती हूं। धर्म और राजनीति से दूर केवल इस विषय पर दिल और संवेदना से सभी को सोचना चाहिए।