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मधुर संबंधों के गवाह बने पड़ोसी देश

  • प्रमोद भार्गव
    नरेंद्र मोदी ने जवाहरलाल नेहरू की बराबरी करते हुए तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ली है। इस बार भाजपा की सरकार राजग गठबंधन पर निर्भर रहेगी, क्योंकि भाजपा स्पष्ट बहुमत के 272 के आंकड़े से बहुत पीछे रह गई है। इसलिए घटक दलों से तालमेल बिठाकर जहां चुनौतियों से सामना करना होगा, वहीं जनता-जनार्दन की उम्मीदों पर भी खरा उतरना होगा। हालांकि शपथ के साथ ही मोदी ने न केवल समझौतावादी जनादेश स्वीकार किया है, बल्कि पड़ोसी देशों के राष्ट्र प्रमुखों को शपथ-ग्रहण समारोह में आमंत्रित कर मधुर संबंध बनाए रखने का उदार संदेश भी दे दिया है। साथ ही पड़ोसी चीन और पाकिस्तान को दरकिनार रखते हुए यह भी संदेश दिया है कि केंद्र में साझा सत्ता होने के बावजूद वे पाक और चीन की नापाक मंशाओं के सामने झुकने वाले नहीं हैं। पाक ने शपथ वाले दिन ही कश्मीर घाटी में तीर्थयात्रियों की बस पर आतंकवादी हमला बोलकर यह जता दिया है कि वह अपनी कुटिल प्रवृति से बाज आने वाला नहीं है। साथ ही पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने बीजिंग में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ द्विपक्षीय वार्ता के बाद कश्मीर के मुद्दे पर संयुक्त बयान दिया है कि ‘वह जम्मू-कश्मीर में भारत की इकतरफा कार्यवाही का विरोध करते हैं। इस मसले का शांतिपूर्ण हल संयुक्त राष्ट्र के चार्टर और यूएनएससी के प्रस्तावों के अंतर्गत तलाशना चाहिए।’ अफगानिस्तान को इसलिए नहीं बुलाया, क्योंकि वहां तो सरकार ही आतंकवादी संगठन तालिबान चला रहा है। ऐसे में अन्य सीमाई पड़ोसी देशों से मधुर संबंधों की यह पहल मोदी की दूरदर्शिता की साक्षी बनी है।
    गणतंत्र के इस समारोह में बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना, माॅरिशस के प्रधानमंत्री प्रविंद्र जगरनाथ, मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मोइज्जु, श्रीलंका के राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंधे, सेशेल्स के उपराष्ट्रपति अहमद अफीफ, नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ और भूटान के प्रधानमंत्री शेरिंग तोबगे शामिल हुए। भारत की ओर से की गई यह पहल ‘पड़ोसी पहले और सागर दृष्िटकोण’ की नीतियों को कारगर बनाने की दृष्िट से की गई है। साफ है, पड़ोसी और समुद्र मोदी के इस तीसरे कार्यकाल में सर्वोच्च प्राथमिकता में रहेंगे। इसके पहले 2014 में नरेंद्र मोदी ने सार्क यानी दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन के देशों और फिर 2019 में बिम्सटेक मसलन बहुक्षेत्रीय तकनिकी और आर्थिक सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी की पहल से जुड़े देशों के प्रमुखों को आमंत्रित किया था। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य बंगाल की खाड़ी के किनारे बसे देशों के बीच परस्पर आर्थिक सहयोग बढ़ाना रहा है। इन देशों में भारत, बांगलादेश, म्यांमार, श्रीलंका और थाईलैंड शामिल है। इसका सचिवालय बांग्लादेश में है।
    इन देशों में भारत क्षेत्रफल, आबादी और अर्थव्यवस्था की दृष्िट से सबसे बड़ा और वैश्िवक प्रभुत्व वाला देश है। आज से दस साल पहले, अर्थात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की संयुक्त प्रगतिशील संगठन सरकार में भारतीय अर्थव्यवस्था का विश्व में 11वां स्थान था, जो नरेंद्र मोदी के 10 साला कार्यकाल में 3.70 लाख करोड़ अमेरिकी डाॅलर के सकल घरेलू उत्पाद के आकार के साथ विश्व में पांचवें स्थान पर है। अर्थव्यवस्था के जानकार यह उम्मीद जता रहे है कि वर्ष 2026 में भारतीय अर्थव्यस्था जर्मन की आर्थिकी से आगे निकलकर वैश्विक स्तर पर चौथे स्थान पर होगी और 2027 में दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था का रूप ले लेगी। बावजूद भारत ने उदारता दिखाते हुए मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मोइज्जु को आमंत्रित किया। जबकि 2023 में जबसे मोइज्जु मालदीव के राष्ट्र प्रमुख बने हैं, तभी से मालदीव और भारत के संबंधों में तनाव बना हुआ है। अपने चुनाव अभियान के दौरान मोइज्जु ने भारत के 88 सैनिकों को देश से निकालने का आहवान किया था। राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने चीन का दौरा किया। जबकि मालदीव के नए राष्ट्रपति बनते हैं, तो पद और गोपनीयता की शपथ लेने के बाद उनका पहला दौरा भारत का रहता है। किंतु अब मोइज्जू ने कहा है कि उनके लिए इस ऐतिहासिक अवसर में भागीदारी सम्मान की बात है। उम्मीद है कि अब दोनों देशों के बीच द्वीपक्षीय संबंध सकारात्मक दिशा में बढ़ेंगे।
    दक्षेस मसलन हमारे वे पड़ोसी देश जो हमारी जमीनी अथवा समुद्री सीमा से जुड़े हैं। इन देशों की संख्या 8 है। ये देश हैं, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, मालदीव और श्रीलंका हैं। हालांकि चीन भी हमारी सीमा से जुड़ा है, लेकिन वह दक्षेस का सदस्य देश नहीं है। इस समूह में यदि माॅरिशस, वर्मा, ईरान, म्यांमार और मध्य एशिया के पांच गणराज्य भी शामिल हो जाएं तो इसकी ताकत वैश्वक मुद्दों में हस्तक्षेप के लायक बन सकती है। मनमोहन सिंह पूरे एक दशक प्रधानमंत्री रहे, लेकिन वे विदेश नीति में मौलिक परिवर्तन लाने की दृष्िट से कोई भी पहल नहीं कर पाए थे। क्योंकि वे अनुकंपा प्रधानमंत्री थे और क्षेत्रीय क्षत्रपों के दबाव में तुरंत आ जाते थे। उनके निर्णय की डोरी सोनिया गांधी की मुट्ठी में बंद थी। नतीजतन वह कठपुतली प्रधानमंत्री के रूप में नाचने को मजबूर थे। इसके उलट मोदी राजनेता होने के साथ, दृढ़ इच्छाशक्ति वाले लगातार तीसरी बार निर्वाचित प्रधानमंत्री हैं, उनका यही आत्मबल उन्हें पड़ोसियों से संबंध सुधारने व विदेशी नीति को नई दिशा देने के लिए प्रेरित करता रहता है।
    दक्षेश देश दुनिया के तीन फीसदी भूगोल में फैले हुए हैं और दुनिया की मौजूदा आबादी की 21 प्रतिशत जनसंख्या इन्हीं देशों में है। इन देशों में कुल क्षेत्रफल और जनसंख्या में भारत की हिस्सेदारी 70 फीसदी से भी ज्यादा है। 80 फीसदी आर्थिकि पर भी भारत काबिज है। हालांकि वैश्विक कारोबार की तुलना में इन देशों का परस्पर कुल व्यापार महज 5 फीसदी ही है। इस लिहाज से ये देश न तो व्यापार के क्षेत्र में सफल रहे और न ही शांति बरकरार रखने में कामयाब हुए। इस नाते इस संगठन का अब बहुत ज्यादा महत्व नहीं रह गया है। पाक निर्यात आतंक यदि कालांतर में युद्ध का कारण बनता है तो दक्षेस का भंग होना तय है।
    हालांकि नरेंद्र मोदी न केवल दक्षेस, बल्कि आसियान देशों के बीच मुक्त व्यापार के पक्षधर रहे हैं। लेकिन पाक बाधाएं पैदा करने से बाज नहीं आता। जबकि भारत हमेशा सौहार्द का पक्षधर रहा है। मोदी ने दक्षेस देशों को तीनों शपथ समारोह में न केवल आमंत्रित किया, बल्कि एक ऐसा उपग्रह अतंरिक्ष में स्थापित किया, जो इन देशों के बीच तकनीकी रूप से मददगार साबित हुआ है।

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